त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में जीत-हार के सियासी मायने

त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में जीत-हार के सियासी मायने

@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

पूर्वोत्तर के सात बहन राज्यों में से तीन राज्यों- त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में हुए विधानसभा चुनावों के आये परिणाम एक ओर जहां जीतने वाले दलों और उनके गठबंधनों को उनके सुमधुर सियासी भविष्य के प्रति उत्साहित कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हारने वाले दलों और उनके गठबंधनों को फिर से आत्म-मंथन करने के लिए अभिप्रेरित कर रहे हैं। वजह यह कि भले ही इन चुनावों में भाजपा और उसके गठबंधन ने रणनीतिक जीत हासिल कर ली है, लेकिन जहां-तहां क्षेत्रीय दलों ने जो उम्दा प्रदर्शन किया है, वह भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस की सियासत के लिए भी किसी खतरे की घण्टी से कम नहीं है। 

सच कहूं तो इस इलाके में जड़ जमाये क्षेत्रीय दलों से सुनियोजित गठबंधन करके भाजपा ने जहां अपनी जड़ें जमा ली है, वहीं कांग्रेस की रणनीतिक खामियों के चलते भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों ने खुद को इतना मजबूत कर लिया कि कांग्रेस का निरन्तर कमजोर होते चला जाना स्वाभाविक भी है। उसके लिए संतोष की बात सिर्फ इतनी है कि इन तीनों राज्यों के साथ-साथ देश के कुछ अन्य राज्यों में जो उपचुनाव हुए हैं, वहां से आये परिणामों में  कांग्रेस ने जीत हासिल की है। इससे उसके हौसले बुलंद हुए हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस की अभूतपूर्व भारत जोड़ो यात्रा के बाद ईसाई, मुस्लिम व जनजाति बहुल पूर्वोत्तर के इन तीनों राज्यों में उसकी राजनीतिक स्थिति सुधरने के जो कयास लगाए जा रहे थे, वो बेतुके प्रतीत हुए। वहीं, इन राज्यों में वामदलों से हुए उसके गठबंधन का भी पूरा फायदा उसे नहीं मिला है, क्योंकि तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी आदि क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति से भाजपा गठबंधन विरोधी वोटों का बंटवारा हो गया, जिससे भाजपा गठबंधन की जीत आसान हो गई।

देखा जाए तो त्रिपुरा और नागालैंड में चुनाव पूर्व भाजपा गठबंधन को जहाँ अपेक्षित सफलता मिली है, वहीं मेघालय में उसने सबसे बड़े दल एनपीपी को रातोरात अपना समर्थन देकर राजनीतिक रूप से पलटती हुई बाजी को अपने पक्ष में कर लिया है। अब जीती हुई सीटों और हारी हुई सीटों का विश्लेषण करके राजनैतिक नब्ज को टटोलने की कोशिश करते हैं। पहले बात त्रिपुरा की, फिर नागालैंड की और अंत में मेघालय की होगी।

अबकी बार त्रिपुरा की कुल 60 सीटों में से भाजपा को 32 (स्पष्ट बहुत), सीपीआईएम को 11, टीएमपी को 13, कांग्रेस को 3 और 1 सीट अन्य को मिली है। पिछले चुनाव के मुकाबले देखा जाए तो यहां बीजेपी को 3 सीटें कम मिली हैं, जिससे पता चलता है कि राज्य में उसका जनाधार खिसका है। वहीं, सीपीआईएम को भी पांच सीटें कम मिली हैं, जिससे मालूम होता है कि राज्य में उसका भी जनाधार छिजा है। यहां पर अन्य दलों को भी 8 सीटें कम मिली हैं, जिससे उनके जनाधार के भी खिसकने की चर्चा है। जबकि कांग्रेस ने यहां पर 3 सीटें ज्यादा हासिल की है और शून्य सीट के अभिशाप को खत्म करके 3 प्राप्त कर ली है। वहीं, इस राज्य की नवगठित पार्टी टीएमपी यहां पर सबसे बड़ी गेनर के रूप में उभरी है और पहली बार में ही उसने 13 सीटें हथिया ली है, जो बहुत बड़ी राजनीतिक सफलता समझी जा रही है। ऐसा इसलिए कि यह पार्टी यहां के पुराने राजपरिवार से जुड़ी हुई है, जिसकी जड़ें यहां पर काफी पुरानी हैं और उसका फिर से यहां जमना कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सियासी चुनौती को बढ़ायेगा।

वहीं, नागालैंड की कुल 60 सीटों में भाजपा गठबंधन को 37 सीटें मिली हैं, जो स्पष्ट बहुमत से ज्यादा है। जबकि एनसीपी को 7, एनपीएफ को 2 और अन्य को 14 सीटें मिली हैं। पिछले चुनाव के मुकाबले देखा जाए तो यहां पर भाजपा गठबंधन की 9 सीटें बढ़ी है, जबकि एनपीएफ़ को 25 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है, जो कि बहुत बड़ी राजनीतिक क्षति समझी जा रही है। वहीं, एनसीपी ने यहां 7 सीटें गेन की है जबकि पहले वह शून्य पर थी। वहीं अन्य को भी 9 सीटों का फायदा हुआ है। हालांकि एनपीएफ को हुए भारी राजनीतिक नुकसान की वजह से भाजपा को यहां स्वाभाविक रूप से काफी मजबूती मिली है।

वहीं, मेघालय की कुल 60 सीटों में से 59 सीटों पर ही मतदान हुआ, लेकिन किसी भी दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुत नहीं मिला है। हां, एनपीपी को यहां 26 सीटें मिली हैं, जो कि राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। वहीं, भाजपा गठबंधन को 2 सीटें मिली हैं। वहीं, कांग्रेस को 5, टीएमसी को 5 और अन्य को 21 सीटें मिली हैं। पिछले चुनाव के मुकाबले देखा जाए तो एनपीपी को जहां 7 सीटों का फायदा हुआ, वहीं भाजपा गठबंधन की स्थिति जस की तस बनी हुई है। यहां पर बीजेपी ने एनपीपी को समर्थन दिया है, जिससे उसके सरकार बनाने का रास्ता साफ हो गया है। हां, यहां पर कांग्रेस को 16 सीटों का नुकसान हुआ है, जबकि टीएमसी को 5 सीटों का फायदा हुआ है। वहीं अन्य को भी तीन सीटों का फायदा हुआ है।

इस प्रकार देखा जाए तो इन तीनों राज्यों में बीजेपी को सिर्फ सरकार बनाने या फिर सरकार में शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ है। उसे जिस तरह का बहुमत मिला है, यानी त्रिपुरा में 2 सीट ज्यादा, नागालैंड में 7 सीट ज्यादा, और मेघालय में काम चलाऊ बहुमत, उससे इस बात की आशंका सदैव बनी रहेगी कि विपक्ष ने यदि चतुराई दिखाई तो किसी भी सरकार को गिराना उसके लिए कोई मुश्किलों भरा काम नहीं होगा, बल्कि चट मंगनी, पट ब्याह की तरह किसी और मुख्यमंत्री की ताजपोशी वह करवा सकता है, सियासी सूझबूझ और जोड़-घटाव-गुणा-भाग करके।

हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस, वाम दलों और क्षेत्रीय दलों का यहां लौटना उतना आसान नहीं है, जितनी कि चुगली विभिन्न दलों को मिली सीटों की संख्या कर रही है। भाजपा की इन बातों में दम है कि लोगों ने यहां पर शांति, विकास और समृद्धि की जारी निरन्तर कोशिशों को चुना है। जो पूर्वोत्तर कभी नाकाबंदी, उग्रवाद, आतंकवाद और लक्षित हत्याओं के लिए जाना जाता था, उसका भाग्य और तस्वीर बदलने में पीएम नरेंद्र मोदी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। अपने 9 साल के प्रधानमंत्रित्व काल में वो 50 से अधिक बार पूर्वोत्तर की यात्रा कर चुके हैं। असम के मुख्यमंत्री हेमंता विश्व शर्मा के मुस्लिम विरोधी तेवर पूर्वोत्तर के हिंदुओं और ईसाइयों को आश्वस्त कर रहे हैं कि उनका उत्पीड़न अब वैसे नहीं होगा, जैसे कि 2014 से पहले होता आया है।

हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस, वामदलों, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, टीएमपी और एनपीएफ आदि दल अभी मिले चुनाव परिणामों के बाद से एकजूट हो जाएं और परस्पर गठबंधन कर लें तो 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की मुश्किलें यहां बढ़ सकती है, क्योंकि विधानसभा चुनावों में सबने एक दूसरे को कांटे की टक्कर देकर भी अच्छी खासी सीट हासिल कर ली हैं।
           (लेखक राजनैतिक दुनिया डॉट कॉम के संपादक हैं।)

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