राजनीतिक भ्रष्टाचार व अपराध को मिटाने के लिए भाजपा द्वारा लाए हुए तीन नए कानूनों के सियासी मायने समझिये
राजनीतिक भ्रष्टाचार व अपराध को मिटाने के लिए भाजपा द्वारा लाए हुए तीन नए कानूनों के सियासी मायने समझिये
@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
देश में यथार्थवादी सियासत को बढ़ावा देने वाली राष्ट्रवादी स्वभाव की भारतीय जनता पार्टी अक्सर राजनीति की उन दुःखती हुई रगों पर ही हाथ डालती आई है जो इस सद्भावी देश व समरस समाज को बदलने की कुव्वत रखते हैं। इससे सोकॉल्ड सेक्यूलर्स, समाजवादियों व साम्यवादियों की बौखलाहट देखते ही बनती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित भाजपा की दशक भर से ज्यादा देशव्यापी सियासी सफलता का राज भी यही है।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गत बुद्धवार को एकजूट विपक्ष के विरोध और हंगामे के बीच सदन में जो ‘संविधान (130वां संशोधन) विधेयक, 2025’, ‘संघ राज्य क्षेत्र शासन (संशोधन) विधेयक, 2025’ और ‘जम्मू कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025’ को पेश किया और उसके बाद उनके ही प्रस्ताव पर सदन ने तीनों विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को भेजने का जो निर्णय लिया, वह देश व स्वस्थ समाज की स्थापना की दिशा में एक और बहुत ही उपयोगी पहल है।
दरअसल, यह भाजपा का एक ऐसा मास्टरस्ट्रोक है, जिससे न केवल शरारती विपक्ष चारो खाने चित्त हो जाएगा, बल्कि अपने भ्रष्टाचारी सियासी मिजाज और अपराध को बढ़ावा देने के स्वभाव या फिर उससे आंखें मूंदे रखने के स्वभाव की भारी राजनीतिक कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ेगी। दिलचस्प बात तो यह है कि कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी आदि ने जिस अदूरदर्शी तरीके से इन प्रस्तावित तीनों विधेयकों का विरोध किया है, उससे उसकी भी भ्रष्ट व आपराधिक मनोवृति को संरक्षण देने वाली कलई खुल चुकी है।
यही वजह है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दो टूक लहजे में कहा है कि अब देश की जनता को यह तय करना होगा कि क्या जेल में रहकर किसी मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का सरकार चलाना उचित है? अथवा नहीं!
बता दें कि इससे पहले गृहमंत्री शाह ने गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार किए गए और लगातार 30 दिन हिरासत में रखे गए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को पद से हटाने के प्रावधान वाले तीन विधेयक लोकसभा में पेश किए, जिन्हें सदन ने अध्ययन के लिए संसद की संयुक्त समिति (जेपीसी) को भेजने का फैसला किया।
दरअसल, एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने आप को कानून के दायरे में लाने का संविधान संशोधन पेश किया है, तो दूसरी ओर ‘‘कानून के दायरे से बाहर रहने, जेल से सरकारें चलाने एवं कुर्सी का मोह न छोड़ने के लिए’’ कांग्रेस के नेतृत्व में पूरे विपक्ष ने इसका विरोध किया है। इसलिए सजग जनता उनको मुंहतोड़ जवाब देगी। देखा जाए तो दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से जेल में रहकर दिल्ली की सरकार चलाई, उसके दृष्टिगत ऐसा विधेयक लाना केंद्र सरकार के लिए नितांत जरूरी हो गया था। इसलिए सरकार ने पूरी तैयारी के साथ इसे लोकसभा में प्रस्तुत कर दिया।
मौजूदा तीनों विधेयक देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार की प्रतिबद्धता और जनता के आक्रोश को देखकर अमित शाह ने संसद में लोकसभा अध्यक्ष की सहमति से संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया, ताकि महत्वपूर्ण संवैधानिक पद, जैसे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री जेल में रहते हुए सरकार न चला पाएं। मसलन, इस विधेयक का उद्देश्य सार्वजनिक जीवन में गिरते जा रहे नैतिकता के स्तर को ऊपर उठाना और राजनीति में शुचिता लाना है।
वाकई इन तीनों विधेयक से जो कानून अस्तित्व में आएगा, वह यह है कि "कोई भी व्यक्ति गिरफ्तार होकर जेल से प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र या राज्य सरकार के मंत्री के रूप में शासन नहीं चला सकता है।’’ इसलिए शाह ने यह स्पष्ट कहा कि, ‘‘संविधान जब बना, तब हमारे संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि भविष्य में ऐसे राजनीतिक व्यक्ति भी आएंगे, जो गिरफ्तार होने से पहले नैतिक मूल्यों पर इस्तीफा नहीं देंगे।’’ वाकई विगत कुछ वर्षों में, देश में ऐसी आश्चर्यजनक स्थिति उत्पन्न हुई कि मुख्यमंत्री या मंत्री बिना इस्तीफा दिए जेल से अनैतिक रूप से सरकार चलाते रहे।
बकौल शाह, इस विधेयक में आरोपी नेता को गिरफ्तारी के 30 दिन के अंदर अदालत से जमानत लेने का प्रावधान भी दिया गया है। अगर वे 30 दिन में जमानत प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो 31वें दिन या तो केंद्र में प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री उन्हें पदों से हटाएंगे, अन्यथा वे स्वयं ही कानूनी रूप से कार्य करने के लिए अयोग्य हो जाएंगे। जबकि कानूनी प्रक्रिया के बाद ऐसे नेता को यदि जमानत मिलेगी, तब वे अपने पद पर पुनः आसीन हो सकते हैं।
वहीं, शाह ने कांग्रेस को इंगित करते हुए कहा कि देश को वह समय भी याद है, जब इसी महान सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन संख्या-39 से प्रधानमंत्री को ऐसा विशेषाधिकार दिया कि प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती थी।
इस प्रकार एक तरफ यह कांग्रेस की कार्य संस्कृति और उनकी नीति है कि वे प्रधानमंत्री को संविधान संशोधन करके कानून से ऊपर करते हैं। जबकि, दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की नीति है कि हम हमारी सरकार के प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्रियों को ही कानून के दायरे में ला रहे हैं।
गृह मंत्री ने अफसोस जताते हुए कहा कि, ‘‘आज सदन में कांग्रेस के एक नेता ने मेरे बारे में व्यक्तिगत टिप्पणी भी की कि जब कांग्रेस ने मुझे पूरी तरह से फर्जी मामले में फंसाया और गिरफ्तार कराया, तब मैंने इस्तीफा नहीं दिया।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं कांग्रेस को याद दिलाना चाहता हूं कि मैंने गिरफ्तार होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था और जमानत पर बाहर आने के बाद भी जब तक मैं अदालत से पूरी तरह निर्दोष साबित नहीं हुआ, तब तक मैंने कोई संवैधानिक पद नहीं लिया था। मेरे ऊपर लगाए गए फर्जी आरोपों को अदालत ने यह कहते हुए खारिज किया कि मामला राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित है।’’
निःसन्देह, भाजपा और राजग हमेशा नैतिक मूल्यों के पक्षधर रहे हैं तथा लाल कृष्ण आडवाणी ने भी सिर्फ आरोप लगने पर ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। दूसरी ओर इंदिरा गांधी द्वारा शुरू की गई ‘‘अनैतिक परंपरा’’ को कांग्रेस पार्टी आज भी आगे बढ़ा रही है। जिस लालू प्रसाद यादव को बचाने के लिए कांग्रेस पार्टी अध्यादेश लाई थी, जिसका राहुल गांधी ने विरोध किया था, आज वही राहुल गांधी पटना के गांधी मैदान में लालू जी को गले लगा रहे हैं। विपक्ष का यह दोहरा चरित्र जनता भली-भांति समझ चुकी है। अरविंद केजरीवाल से भी कांग्रेस का रिश्ता जगजाहिर है।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि यह पहले से स्पष्ट था कि यह विधेयक संसद की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के समक्ष रखा जाएगा, जहां इस पर गहन चर्चा होगी। फिर भी सभी प्रकार की शर्म और हया छोड़कर, भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए, कांग्रेस के नेतृत्व में पूरा ‘इंडी’ (गठबंधन गठबंधन ‘इंडिया’) एकत्रित होकर इसका भद्दी तरह से विरोध कर रहा था। आज विपक्ष का जनता के बीच पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया है।
ऐसे में सवाल है कि आखिर इस युगांतरकारी बिल से भाजपा आमलोगों को क्या संदेश देना चाहती है? तो जवाब होगा कि संसद का मॉनसून सत्र पूरा होने के महज एक दिन पहले केंद्र की एनडीए सरकार ने लोकसभा सें संविधान संशोधन विधेयक पेश किया और इसे व्यापक चर्चा के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया। ऐसा इसलिए किया गया कि इस विधेयक के जरिए बीजेपी सिर्फ यह नहीं बताना चाह रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी मोर्चों पर लड़ाई जा रही है, बल्कि राजनीति के अपराधीकरण को लेकर भी एक ठोस संदेश दे रही है। इससे आमलोगों के बीच सकारात्मक संदेश जाएगा।
इस बारे में बीजेपी का मानना है कि इस बिल को लोग पसंद करेंगे, जिससे इसका सकरात्मक संदेश जाएगा। उन्होंने याद दिलाया कि जब लालबत्ती खत्म करने का फैसला लिया गया था तो सबसे अच्छा असर युवाओं में ही हुआ था, क्योंकि युवा किसी भी वीआईपी कल्चर के खिलाफ हैं। वहीं, राजनीति में भ्रष्ट लोग ना रहें, इसे लेकर भी वर्षों से युवाओं में चर्चा तेज है। पार्टी ने 2010-11 के अन्ना आंदोलन का जिक्र करते हुए कहा कि चूंकि जनलोकपाल व भ्रष्टाचार के खिलाफ चली इस लड़ाई में देश के युवाओं ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। इसलिए इस तीनों बिल के जरिए हम अपनी मंशा साफ कर रहे हैं कि भाजपा राजनीति में अपराधीकरण और करप्शन के खिलाफ है और करप्शन के खिलाफ हमारी जंग जारी रहेगी।
रही बात राजनीति और नैतिकता की तो जनप्रतिनिधि होने के नाते यह बहुत जरूरी है। इस बाबत भाजपा की सोच है कि संविधान निर्माताओं ने भी यह सोचा होगा कि अपराधी और भ्रष्ट लोगों को राजनीति से दूर रखा जाए, लेकिन तब इसका प्रावधान इसलिए नहीं डाला गया, क्योंकि उस समय राजनीति में नैतिकता थी। आरोप लगने भर से लोग कुर्सी छोड़ देते थे। लेकिन, अब स्थिति यह नहीं है। पार्टी ने बिना किसी का नाम लिए कहा कि अब लोग जेल से ही सरकार चलाना चाहते हैं। लिहाजा, कानून के जरिए यह सुनिश्चित किया जाएगा कि अपराधी और भ्रष्ट लोग सत्ता से दूर रहें।
कुल मिलाकर मौजूदा बिल सियासत में व्याप्त व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के खिलाफ है। ऐसा किया जाना राष्ट्रहित और जनहित दोनों में जरूरी है। पार्टी ने ठीक ही कहा है कि इस बिल के दायरे में पीएम और केंद्र के मंत्री भी हैं, ऐसे में विपक्ष की इस बात की हवा खुद ही निकल जाती है कि केंद्र सरकार, अपने मातहत राज्य सरकारों के खिलाफ इसका दुरुपयोग कर सकती है।
# जानिए इस बिल के अहम प्रावधान के बारे में
130वें संशोधन विधेयक में संविधान के अनुच्छेद 175, 164 और 239आ में नए प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव है। जम्मू-कश्मीर और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भी दो समान संशोधन लाई गई है, जिसका नाम जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025 और केंद्र शासित प्रदेश शासन (संशोधन) विधेयक, 2025 है।
केंद्रीय मंत्री को प्रधानमंत्री की सलाह पर पद से हटा सकेंगे। अगर 31वें दिन तक ऐसी सलाह नहीं दी जाती है तो वह मंत्री पद से खुद ब खुद हट जाएंगे। प्रधानमंत्री के मामले में प्रस्तावित कानून कहता है कि उन्हें गिरफ्तारी और हिरासत में लिए जाने के 31वें दिन तक इस्तीफा देना होगा और यदि ऐसा नहीं किया, तो वो स्वतः प्रधानमंत्री पद से मुक्त हो जाएंगे।
वहीं, पीएम या मंत्री हिरासत से रिहा होने पर दोबारा नियुक्त हो सकेंगे। ऐसा कानून राज्यों के सीएम और अन्य मंत्रियों के लिए भी प्रस्तावित है। इस उपधारा में निहित कोई भी बात ऐसे दोषी या मंत्री को, हिरासत से रिलीज ( रिहा) होने पर, राष्ट्रपति द्वारा, पुनः प्रधानमंत्री या मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने से नहीं रोकेगी।
# जानिए, आखिर में क्या है इस क्रांतिकारी कानून को लाने की असली वजह
चूंकि निर्वाचित प्रतिनिधि भारत की जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर केवल जनहित और जनता के कल्याण के लिए कार्य करें।
वहीं, यह भी अपेक्षित है कि पद पर आसीन मंत्रियों का चरित्र और आचरण संदेह से परे होना चाहिए। ऐसे में जब
कोई मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री जो गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहा हो और जिसे गिरफ्तार करके हिरासत में रखा गया हो, वह संवैधानिक नैतिकता और सुशासन के सिद्धांतों में बाधा डाल सकता है और अंततः जनता द्वारा उसमें जताए गए संवैधानिक विश्वास को कमजोर कर सकता है।
दरअसल, कई बार ऐसा हो चुका है, इसलिए मोदी सरकार नया कानून लेकर आई है। सरकार का कहना है कि अबतक संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि किसी मंत्री को गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण गिरफ्तारी और हिरासत में रहने पर पद से हटाया जा सके। लिहाजा, उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए, संविधान के अनुच्छेद 75, 164 और 239आ में संशोधन की आवश्यकता है, ताकि ऐसे मामलों में प्रधानमंत्री या केंद्र मंत्रिपरिषद के मंत्री, तथा मुख्यमंत्री या राज्यों और दिल्ली की मंत्रिपरिषद के मंत्रियों को हटाने का कानूनी ढांचा उपलब्ध कराया जा सके। यही जनहित में उचित होगा।
# समझिए कि मौजूदा कानून क्या है और उसमें क्या कमी है?
साल 2013 में लिली थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था, जो सांसद और एमएलए को आपराधिक मामलों में दोषी पाए जाने के बाद भी सदस्यता रद्द होने से बचाता था। दरअसल, इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले सांसद और विधायक की अपील दाखिल करने के ग्राउंड पर सदस्यता खत्म नहीं होती थी। इस धारा के निरस्त होने के बाद जो भी जनप्रतिनिधि दोषी पाए जाएंगे, उनकी सदस्यता निरस्त हो जाएगी। क्योंकि रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट की धारा 8 (3) के तहत 2 साल या उससे ज्यादा सजा के मामले में लॉ मेकर को अयोग्य करार दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन उन्हें यानी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या उन दोनों के मंत्रीगण की गिरफ्तारी के बाद पद से इस्तीफा देने का नियम इसमें शामिल नहीं किया गया है जो इसकी मौलिक कमी दर्शाती है।
# जानिए, आखिर क्या कहते हैं कानून के जानकार
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता सुधांशु कुमार चौधरी बताते हैं कि अभी तक जनप्रतिनिधित्व कानून (रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट) में 2 साल या उससे ज्यादा सजा के मामले में लॉमेकर को अयोग्य करने का प्रावधान है। जबकि गिरफ्तारी पर पद से हटाने का प्रावधान नहीं है। चूंकि संसद को कानून बनाने का अधिकार है और उस कानून को परखने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है। लिहाजा कानून बनने के बाद भी इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। तब सुप्रीम कोर्ट देखेगा कि कानून संवैधानिक दायरे में है या नहीं।
वहीं, इस कानून को लेकर बहस चल रही है कि इसका राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है लेकिन किसी कानून के दुरुपयोग होने को आधार मानकर उसे गैर संवैधानिक नहीं बताया जा सकता है। कोई भी कानून सुप्रीम कोर्ट से तभी निरस्त होता है, जब वह गैर संवैधानिक हो या लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करता हो। देखा गया कि हाल के वर्षों में दिल्ली के पूर्व सीएम अरविंद केजरीवाल पद पर रहते हुए गिरफ्तार हुए थे और जेल में रहते हुए भी वह पद पर बने हुए थे। यह किसी भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक स्थिति थी। इसलिए सरकार माकूल कानून लेकर आई है।
# अब तक भ्रष्टाचार व अपराध को संरक्षण देने के मामले में आरोपी रहे विपक्ष की मिली लंबी-चौड़ी प्रतिक्रिया के बारे में जानिए
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि देश को मध्ययुगीन काल में धकेला जा रहा है, जब राजा नापसंदगी वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करवा देता था। उन्होंने उन नये विधेयकों की आलोचना की जिनमें गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार किए गए और लगातार 30 दिन हिरासत में रखे गए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को पद से हटाने का प्रावधान किया गया है। बकौल राहुल गांधी , ‘‘भाजपा जो नया विधेयक प्रस्तावित कर रही है, उस पर काफी काम किया जा रहा है। हम मध्ययुगीन काल में वापस जा रहे हैं जब राजा अपनी मर्जी से किसी को भी हटा सकता था।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘एक निर्वाचित व्यक्ति क्या होता है, इसकी कोई अवधारणा ही नहीं है। उन्हें आपका चेहरा पसंद नहीं आता, इसलिए वह प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को मामला दर्ज करने को कहते हैं और फिर लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए व्यक्ति को 30 दिन के भीतर हटा दिया जाता है। यह नया है।’’
वहीं, संविधान सदन (पुरानी संसद) के केंद्रीय कक्ष में आयोजित कार्यक्रम में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कहा कि संसदीय लोकतंत्र और संघवाद के मूल मूल्यों को कमजोर करने वाला संविधान संशोधन विधेयक सत्र के अंत में छलपूर्वक पेश किया जा रहा है, जिससे सार्थक बहस या समीक्षा की कोई गुंजाइश नहीं बची है। उन्होंने कहा, ‘‘पिछले 11 वर्षों में विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए ईडी, आयकर और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) जैसी स्वायत्त एजेंसियों को कठोर शक्तियों से लैस करने के लिए संसदीय बहुमत का घोर दुरुपयोग होते हमने देखा है।’’ खरगे ने आगे कहा, ‘‘अब, ये नये विधेयक राज्यों में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को और कमजोर करने और अस्थिर करने के लिए सत्तारूढ़ दल के हाथों के हथकंडे बनने वाले हैं।’’ उन्होंने फिर कहा, ‘‘संसद में हमने विपक्ष की आवाज दबाने का बढ़ता चलन देखा है। हमें सदन में लोगों से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे उठाने का बार-बार मौका नहीं दिया जाता।’’
वहीं, वामपंथी दलों ने कहा कि गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों को हटाने का प्रावधान करने वाले नए विधेयक लोकतंत्र और संघीय ढांचे पर सीधा ‘‘हमला’’ हैं और उन्होंने इसका ‘‘पूरी ताकत से’’ विरोध करने का संकल्प लिया। इस कदम की कड़ी आलोचना करते हुए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) महासचिव एमए बेबी ने ‘एक्स’ पर कहा, ‘‘मोदी सरकार द्वारा प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को 30 दिनों की हिरासत में रखने के बाद पद से हटाने के तीन विधेयक उसके नव-फासीवादी चरित्र को उजागर करते हैं। हमारे लोकतंत्र पर यह सीधा हमला है और माकपा डटकर इसका विरोध करेगी। हम सभी लोकतांत्रिक ताकतों से इस दमनकारी कदम के खिलाफ एकजुट होने का आग्रह करते हैं।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘उच्च पदों पर अपराध से निपटने के नाम पर पेश किए गए ये विधेयक वास्तव में सरकार के असली इरादे को उजागर करते हैं क्योंकि आरएसएस-नियंत्रित मोदी सरकार का इतिहास निर्वाचित राज्य सरकारों को कमजोर करने का रहा है। ‘एसआईआर’ के साथ ही ये हमारे लोकतंत्र को कुचलने की एक जबरदस्त कोशिश का प्रतीक हैं। सभी लोकतांत्रिक ताकतों को इसका विरोध करना चाहिए।’’
वहीं, माकपा के राज्यसभा सदस्य जॉन ब्रिटास ने इन विधेयकों को ‘‘दमनकारी’’ बताया। उन्होंने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘‘केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा कथित तौर पर ‘जनहित, कल्याण और सुशासन’ के नाम पर लाया गया नया विधेयक वास्तव में दमनकारी है और इसका उद्देश्य विपक्ष शासित राज्य सरकारों को अस्थिर करना है, साथ ही भारत की संघीय संरचना को कमजोर करना है।’’
ब्रिटास ने कहा, ‘‘बदले की राजनीति के इस दौर में, जहां विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल किया जा रहा है, इन प्रावधानों का दुरुपयोग गुप्त राजनीतिक मंशाओं के लिए किया जाएगा।’’ माकपा नेता ने कहा कि विधेयक में ‘‘संवैधानिक नैतिकता’’ का उल्लेख इसकी भावना के विपरीत है, क्योंकि यह उस स्थापित सिद्धांत से अलग है कि अयोग्यता और सजा अदालतों द्वारा दोषसिद्धि से जुड़ी होनी चाहिए, न कि केवल आरोपों या गिरफ्तारी से। उन्होंने कहा, ‘‘यह सिद्धांत जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए) की धारा 8 में स्पष्ट रूप से निहित है। आज के घातक राजनीतिक माहौल में, जहां व्यक्तियों पर आसानी से आरोप लगाए जा सकते हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है और लंबे समय तक हिरासत में रखा जा सकता है, इस कानून का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने और लोकतांत्रिक मानदंडों को कमजोर करने के लिए किया जाएगा।’’
वहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के राज्यसभा सदस्य पी.संदोष कुमार ने कहा कि तीनों विधेयक ‘‘प्रतिशोध की राजनीति के द्वार’’ खोल देंगे। कुमार ने कहा, ‘‘ये विधेयक बदले की राजनीति के द्वार खोलने का एक हथियार हैं। भाजपा, जो राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियों का दुरुपयोग करती है, अब निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करने की खुली छूट पा लेगी। किसी भी मुख्यमंत्री या मंत्री को गिरफ्तार किया जा सकता है और तुरंत हटाया जा सकता है, जिससे सत्तारूढ़ दल यह तय कर सकेगा कि राज्यों में कौन शासन करेगा। यह संघवाद और राजनीति में समान अवसर को समाप्त करता है।’’
वहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा कि ये विधेयक संघवाद के ‘‘अंत की शुरुआत’’ होंगे। उन्होंने कहा, ‘‘निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रणाली के लिए लगातार दबाव बनाने तक, चुनाव प्रणाली में सुनियोजित छेड़छाड़ को देखते हुए यह संशोधन भारत में संघवाद और संसदीय लोकतंत्र के अंत की शुरुआत साबित होंगे।’’ भट्टाचार्य ने एक बयान में कहा, ‘‘भाजपा की राजनीति और नीतियों का विरोध करने वाली हर राज्य सरकार अब स्थायी रूप से अस्थिर और निष्क्रिय हो जाएगी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग)का हर सहयोगी भाजपा के साथ आने के लिए बेचैन रहेगा।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘ईडी, सीबीआई (केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो), आयकर, एनआईए (राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण) जैसी केंद्रीय एजेंसियों का हथियार के तौर पर इस्तेमाल और संकीर्ण पक्षपातपूर्ण हितों के लिए राज्यपालों के संवैधानिक पद का दुरुपयोग, एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसकी कई मौकों पर यहां तक कि उच्चतम न्यायालय द्वारा भी गंभीर रूप से निंदा की गई है, अब इस विधेयक के अधिनियमित होने से कानूनी वैधता प्राप्त कर लेगी।’’
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