सद्कर्म और श्रम आधारित फल पर जीने का प्रयास और रियाज कीजिए, सुख-शांति मिलेगी
# सद्कर्म और श्रम आधारित फल पर जीने का प्रयास और रियाज कीजिए, सुख-शांति मिलेगी
@ डॉ दिनेश चंद्र सिंह, आईएएस, जिलाधिकारी, जौनपुर जनपद।
प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ 'अष्टावक्र गीता' का एक प्रसिद्ध श्लोक (18.78) है, "क्व तमः क्व प्रकाशो वा हानं क्व च न किञ्चन। निर्विकारस्य (नविकारस्य) धीरस्य निरातङ्कस्य सर्वदा॥" अर्थात, "सर्वदा निर्भय और निर्विकार धीर पुरूष को "कहाँ अंधकार, कहाँ प्रकाश? और कहाँ त्याग (हानि) है? और कहाँ कुछ भी नहीं है? जो बुद्धिमान व्यक्ति हमेशा अपरिवर्तनीय और निडर रहता है, वही श्रेष्ठ है।"
देखा जाए तो यह श्लोक, मनुष्य के भ्रमित और अज्ञानी अवस्थाओं पर प्रकाश डालता है। यानी जब मन अंधकार (अज्ञान) और प्रकाश (ज्ञान) के बीच फंसा रहता है, तो वह हमेशा भ्रमित रहता है। लेकिन जब मन स्थिर हो जाता है, और अहंकार से मुक्त हो जाता है, तो वह इन द्वंद्वों से परे हो जाता है। उस स्थिति में, न तो अंधकार होता है और न ही प्रकाश, न ही हानि और न ही लाभ। यह स्थिति ही ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था है। श्रेष्ठ पुरुष ही इस स्थिति को प्राप्त करते हैं।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि मानवीय चित्त में वृत्तियां हैं, वासनाएं हैं, कामनाएं हैं। दरअसल, अनेक जन्मों में जो कुछ हमलोगों को मिला है, उसही का संग्रहीत स्वरूप ही चित्त यानी मनोवृति है। बुद्धि इनको सद अथवा असद रूप में विभाजित करती है। वही सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, प्रकाश-अंधकार, त्याग-ग्रहण आदि का विभाजन करती है। किंतु अस्तित्व में कुछ भी नहीं है। वहां सब एक रूप है। एक को हराने और दूसरे को बचाने का कोई उपाय नहीं है। ऐसा इसलिए कि यदि मृत्यु को हरा दिया जाए तो जन्म कदापि नहीं संभव है।
अनुभूत सत्य है कि यदि बेईमानी को हटा दिया जाए तो किसी प्रकार की ईमानदारी संभव नहीं है। इसलिए घृणा है तो प्रेम है। पाप है तो पुण्य (धार्मिक स्थल) है। जहां पापी अपने अंतःकरण से, अपनी अंतरात्मा की आवाज से, अपने पाप को आत्म स्वीकार कर, मौन से पापों की स्वीकृति प्रदान करते हुए धर्म के प्रतीक स्वरूप मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च में मौन रूप में अपने कृत्यों के लिए माफी मांगता है और वाचाल होकर अपने को निष्कपट, ईमानदार और सत्यवचन कर्ता के रूप में प्रस्तुत करता है। यही छलिया जीवन है। इसमें शांति दुर्लभ है।
अनुभव बताता है कि मैं भी, तू भी मानव स्वरूप में
मानवोचित दुर्बलताओं और मानवोचित कर्मेन्द्रियों का गुलाम तो नहीं हूँ, लेकिन इसके प्रभाव में हूँ। ऐसा कोई मानव नहीं है, जो मानवोचित दुर्बलताओं और कर्मेन्द्रियों की चंचलता और वासनाओं का कम से कम एक बार शिकार नहीं हुआ हो, परन्तु हम अपनी कमियों को स्वीकार नहीं करते हैं। यही कारण है कि हम कभी कभार सफल भी नहीं होते हैं।
एक प्रकार से हम अभी अज्ञानी हैं। बड़े-बड़े पदों एवं भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धियों की चकाचौंध में रहते हैं। भौतिक संसाधनों के उपभोग के आधार पर खुद को बड़ा मानकर दोष करने के पाप को भोगते हैं। हमलोग अपनी सुविधा के लिए सब कुछ भोगने की अकारण चेष्टा में निर्लिप्त रहते हैं और दिखावा के लिए बहुत उत्कृष्ट बनने का प्रयत्न करते हैं। परंतु जब मन के अंतर्मन में स्वयं झांकते/देखते हैं तो पाते हैं कि वाकई में हम क्या हैं? शायद कुछ नहीं, इसलिए इस मानसिक अवस्था, द्वंद्व भरे जीवन का मैं वर्णन नहीं करूंगा।
कहना न होगा कि सब कुछ यहीं यानी मृत्यु लोक में रहेगा, सिर्फ हमारा स्वार्थ रहित काम और उससे प्राप्त मानव कल्याण का यश ही हमारे साथ जाएगा। इस नजरिए के मुताबिक, सुखमय जीवन के प्रयासों की समस्त कहानी ही हमारी होगी। कहने का आशय यह कि पद-प्रतिष्ठा और अहंकार युक्त स्वार्थपरक जीवन जीने की शैली कभी आपको जीवन पर्यंत प्रतिष्ठा नहीं दिलाएगी, क्योंकि भौतिक उपलब्धि और सुख-सुविधाओं से प्राप्त जीवन हमेशा व्याधि ही लाती है और व्याधि किसी भी व्यक्ति के स्वस्थ जीवन शैली की शत्रुता का संवाहक है। यह काफी कष्टकर अवस्था होती है। इससे निवृति कुशल चिकित्सा द्वारा ही संभव है। यदा-कदा प्रारब्धवश इसमें भी बाधा पहुंचती है, जिससे जीवन नारकीय बन जाता है।
सच कहूं तो मैं भी कहीं न कहीं कुछ मानवोचित दुर्बलताओं का शिकार हुआ हूँ, परंतु कुल मिलाकर बहुत कुछ यानी बहुतेरी दुर्बलताओं से अछूता हूँ। शायद इसलिए स्वस्थ भी हूँ। ऐसी ही सद्प्रवृति की कामना आप सभी हित चिंतकों, मित्रों, सुधीजनों के लिए करता हूँ। मेरी स्पष्ट अवधारणा है कि सुख-दुःख, ऐश्वर्य-अनैश्वर्य सभी कुछ ईश्वर की सत्ता के अधीन है। इसलिए तो लोक महाकाव्य रामचरितमानस में लिखा हुआ है कि- "सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेऊ मुनिनाथ। हानि-लाभु, जीवनु-मरनु, जसु-अपजसु विधि हाथ।।"
इस प्रकार से यह ठीक है कि सब कुछ विधि के हाथ में है, परंतु हमारा अहंकार युक्त कर्म ही हमें विधि के विधान की उस ओर उन्मुख करता है। इसलिए परोपकारी भावना में इजाफा करते हुए निज अहंकारी चित्त का दमन कीजिए।
जहां उपरोक्त वर्णित कर्मों की चासनी के अंतर्गत हमें वही मिलेगा, जैसा सुंदर हमारा कर्म और अंतःकरण, आचरण होगा। कहा भी जाता है कि- "बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय।"
शास्त्र कहता है कि "जहां क्रोध तहां काल है, जहां लोभ वहां पाप। जहां दया तहां धर्म है, जहां प्रभु वहां आप।।" इसलिए
हम सबको क्रोध और लोभ से दूर रहकर दयावान प्रभु के ध्यान में उनकी निस्सीम कृपा की प्राप्ति के लिए निष्कपट हृदय से प्रयासरत रहना होगा।
सच कहूं तो करुणा युक्त दया की प्रतिबद्धता के साथ मैंने भी निज जीवन में तमाम प्रकार की मध्यमवर्गीय उत्कृष्टता को प्राप्त किया है। परंतु किसी प्रकार के सुख भोग का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसलिए प्रश्न है कि, मैंने अपने पद की आशा और आभा अमृत स्वयं में या परिवार में आने दिया, जिससे बहुत कुछ पाकर भी ऐसा कुछ नहीं पाया जिससे मुझे या मेरे परिवार को अहं हो जाए। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे मैं और मेरे बच्चे किसी अहं और अभिमान का शिकार हो जाएँ। ऐसा इसलिए कि मैं जीवन जीने की कला जानता हूँ, इसलिए श्रम आधारित फल पर जीने का प्रयास और रियाज करता हूँ। इससे मुझे सपरिवार असीम शांति व सद्प्रेरणा मिलती है जो स्वर्ग में प्रवेश का परिचायक है। इसलिए भगवान का आभारी हूँ।
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