रक्षाबंधन के उदात्त सनातनी भाव में अंतर्निहित शाश्वत सांसारिक मायने को ऐसे समझिए
रक्षाबंधन के उदात्त सनातनी भाव में अंतर्निहित शाश्वत सांसारिक मायने को ऐसे समझिए
@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
ब्राह्मण पर्व 'रक्षाबंधन' न केवल भाई-बहनों, बल्कि पंडित-यजमान के पारस्परिक प्रेम, विश्वास और आपसी सौहार्द का एक अनोखा अवसर है, जहां बहन अपने भाई की कलाई पर और ब्राह्मण अपने यजमान के हाथ, शस्त्र और कारोबारी प्रतिष्ठान पर रक्षा सूत्र बांधकर उनकी शाश्वत सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं।
यह एक ऐसा मंगलकामना पर्व है जो सनातनी दूरदर्शिता, पारस्परिक उदारता और रिश्तों के शाश्वत गौरव भाव को अभिव्यक्त करता है। इसके शाश्वत मायने समूची दुनिया के लिए सकारात्मक हैं और इसे समझते ही सनातनी गौरव भाव का बोध होता है।
कहा गया है कि यदि आपके विचार अच्छे होंगे तो जीवन-जगत में सबकुछ अच्छा यानी अनुकूल होगा। इसलिए पारस्परिक मानवीय सम्बन्धों, कारोबारी प्रतिस्पर्धा और दो देशों की सीमाओं पर फैलते जा रहे खूनी संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में रक्षाबंधन के मायने को समझने और समझाने की जरूरत है।
सच कहूं तो यह पर्व सशक्त लोगों द्वारा निर्बलों की रक्षा करने की प्रेरणा सकल विश्व को देता है। यदि ऐसा संभव हुआ तो इस दुनिया को स्वर्गिक बनते देर नहीं लगेगी। बस इस नजरिए से पूंजीपतियों को अपने इरादे बदलने की जरूरत है और जनतांत्रिक सरकारों को वोट बैंक की रक्षा से इतर सामूहिक प्रतिरक्षात्मक चेतना के बारे में सजग होने की दरकार है।
यह ठीक है कि ब्रह्मांड के जानकार ब्राह्मणों (आधुनिक प्रबुद्ध जनों) के ऊपर सुंदर दुनिया बसाने, उसे सुव्यवस्थित रखने और हर दृष्टि से सुगम्य और सर्वानुकूल व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी है। जिसके निमित्त रक्षात्मक, सुरक्षात्मक और प्रतिरक्षात्मक तैयारियों को जन-जन में पहुंचाने हेतु ही रक्षाबंधन जैसे सांस्कृतिक पर्व के उदात्त भाव को देश-दुनिया के समक्ष लाया गया और समाज में फैलाया गया।
हालांकि, पारस्परिक स्वार्थ में अंधे समाज व संस्थात्मक संसार ने इसे मात्र भाई-बहनों या पंडित-यजमान तक सीमित कर दिया। जबकि इसके व्यक्तिगत, सामाजिक, क्षेत्रीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मायने, उनकी जरूरतों को समझने-समझाने की दरकार है।
कहा जाता है कि शिक्षा का महान उद्देश्य ज्ञान और कर्म है। जब हमारा शिक्षक सजग रहता है तो सुरक्षा कर्मियों की न्यूनतम जरूरत पड़ती है। पर आज उल्टा होता हुआ महसूस किया जा रहा है। प्रायः हर ओर असुरक्षा का आलम घना होता जा रहा है। स्त्री सुरक्षा अब भी यक्ष प्रश्न बना हुआ है, क्योंकि तमाम कानूनी व सुरक्षात्मक व्यवस्था
के बावजूद लक्ष्य सिद्धि नहीं हो पा रही हैं। लगभग यही स्थिति हर उस क्षेत्र की है, जहां बात सुरक्षा या उसकी तैयारियों से जुड़ी हुई है। इस बात आए तमाम आंकड़े भी हम सबको हतोत्साहित करते हैं।
सच कहूं तो कभी राजाओं-महाराजाओं के स्वार्थ ने, कभी सामंतों की आपसी प्रतिद्वंद्विता ने और कभी लोकतांत्रिक बहुमत के मूर्खतापूर्ण संघर्षों ने सही शिक्षा और पारस्परिक सुरक्षा बोध का जो गला घोंटा है, वह वैचारिक दुनिया यानी ब्राह्मणों यानी प्रबुद्ध वर्गों की सबसे बड़ी त्रासदी है। जिससे निपटने के लिए भी रक्षाबंधन पर हमलोगों को समवेत रूप से संकल्प बद्ध होने, सजग होने की जरूरत है।
अन्यथा अव्यवहारिक सोच, फर्जी विकास और मनुष्य/प्रकृति विनाशक हथियारों की होड़ मानवीय जीवन की सुख-शांति को तहस नहस कर देगी। शायद यही हो भी रहा है, जिससे अब सामूहिक सीख लेने की जरूरत सबको आन पड़ी है।
वहीं, देखा जाए तो दलित-महादलित, आदिवासी-वनवासी, पिछड़ा वर्ग-अत्यंत पिछड़ा वर्ग, सवर्ण-गरीब सवर्ण, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, स्त्रीलिंग-पुल्लिंग, भाषा-क्षेत्र, धर्म-सम्प्रदाय आदि की आड़ में जो व्यक्तिगत, सामाजिक, क्षेत्रीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जन भेद या सामूहिक विभेद लोकतंत्र-जनतंत्र के नाम पर पैदा किया गया, वह एक बड़ी नीतिगत सार्वजनिक त्रासदी है।
ऐसा इसलिए कि इससे पारस्परिक रक्षात्मक सोच-समझ को ही हानि पहुंची है। आपने राजनीतिक रक्षाबंधन (मायावती-लालजी टण्डन आदि) का हश्र देखा सुना ही होगा। सच कहूं तो इस प्रवृति ने मानव सभ्यता के इतिहास में जो अंधी दौड़ शुरू की है, उसका न आदि अच्छा रहा और न ही अंत अच्छा पूर्वक होने की संभावना है।
शायद इसी नजरिये से आधुनिक विश्व व्यवस्था भी अमूलचूल परिवर्तन की जद में है और भारत को यदि नेतृत्व का भावी अवसर मिला तो देश-दुनिया को रक्षाबंधन के मायने समझाने में वह सफल होगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। यदि ऐसा सम्भव हुआ तो रक्षाबंधन जैसे पवित्र त्यौहार को वास्तविक अर्थ मिलेगा, जिससे समकालीन दुनिया और ज्यादा सुंदर बनकर निखरेगी।
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