आदिवासियों के प्रेरणास्रोत बने रहेंगे 'दिशोम गुरू' शिबू सोरेन

आदिवासियों के प्रेरणास्रोत बने रहेंगे 'दिशोम गुरू' शिबू सोरेन 


@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

सुप्रसिद्ध आदिवासी नेता और दिशोम गुरू के नाम से विख्यात शिबू सोरेन गोलोकधाम चले गए, लेकिन वे आदिवासियों के प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे। दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में 4 अगस्त 2025 की सुबह को उन्होंने आखिरी सांस ली। उनके निधन से झारखंड के साथ बिहार में भी शोक की लहर है। उन्होंने जिस झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की, वह आज सूबाई सत्ता में गठबंधन सरकार को नेतृत्व प्रदान कर रहा है। ऐसा इसलिए कि वे खालिस बागी आदिवासी नेता व कार्यकर्ता दोनों थे। उनके कुछ रणनीतिक गुण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन में भी मौजूद हैं, जिसके बदौलत वे अपने प्रतिद्वंद्वियों को सियासी मात देते रहते हैं। 

उल्लेखनीय है कि झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने गत विधानसभा चुनाव में तमाम सत्ता विरोधी अटकलों को खारिज करते हुए झारखंड की सत्ता में न केवल शानदार वापसी की, बल्कि सियासत में मोदी-शाह युग के मिथक को भी तोड़ दिया। अपनी जेल यात्रा के बावजूद वह अपने लोगों से नहीं कटे और सूबाई मुद्दों के प्रति अपनी दृढ़ता बनाए रखी, जिसका प्रतिफल उन्हें समकालीन सत्ता के रूप में मिला। 

यह शिबू सोरेन की बड़ी खुशनसीबी रही कि जब उन्होंने अंतिम सांस राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ली तो उनका पुत्र झारखंड की सूबाई सत्ता पर काबिज है। शिबू सोरेन को 'झारखंड का लालू प्रसाद' समझा जाता है, क्योंकि जनता व उनके मुद्दों पर उनकी गहरी पकड़ अंत अंत तक बनी रही।

देखा जाए तो झारखंड में शिबू सोरेन ने सूदखोरी और महाजनी प्रथा से आदिवासियों को निजात दिलाई, क्योंकि वे इससे काफी त्रस्त थे। लिहाजा शिबू सोरेन ने उलगुलान की आवाज बुलंद की और आदिवासियों के नायक बन गए। फिर धनकटनी प्रथा से शुरू हुआ गुरुजी का क्षेत्रव्यापी  आंदोलन झारखंड के अलग राजनीतिक वजूद के सवाल पर आ गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के सहयोग से उनका वह भी स्वप्न पूरा हो गया।

शिबू सोरेन इतने जुनूनी और जुगाड़ू थे कि झारखंड में भाजपा की सत्ता को उखाड़ कर झामुमो की सत्ता स्थापित कर दी, जो पिछली दो पारियों से लगातार सत्ता में बनी हुई है और गठबंधन सरकार अपनी शर्तों पर चला रही है।
झारखंड और देश के लोग सम्मान देते हुए उन्हें दिशोम गुरु कहते थे, जिसका अर्थ होता है राह दिखाने वाला अर्थात पथ प्रदर्शक। झारखंड में यही उपाधि 81 वर्षीय शिबू सोरेन को मिली हुई थी। 

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि अपनी 81 साल की जिंदगी में शिबू सोरेन ने विभिन्न जनजीवन क्रांतियों की कई अलहदी कहानियां दर्ज की हैं। इसलिए उन्हें झारखंड की संघर्ष परंपरा का विशाल बट वृक्ष समझा जाता है। वे आदिवासियों के सर्वमान्य नेता थे। 11 जनवरी 1944 को पैदा हुए शिबू सोरेन ने झारखंड में उलगुलान की वो आवाज बुलंद की थी, जिसे धरती आबा (पृथ्वी के पिता) बिरसा मुंडा ने हुंकार दी थी। 

सच कहूं तो बिरसा मुंडा की क्रांति जहां अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ थी, वहीं दिशोम गुरु का प्रतिरोध देश में मौजूद अंदर की तत्कालीन कांग्रेसी व समाजवादी व्यवस्था के खिलाफ थी। हालांकि, बाद में वे उन्हीं लोगों से मिल गए और अपनी सरकारें चलाई। आज भी वही स्थिति है।

जब उनका आदिवासी समाज शोषण, महाजनी प्रथा और सूदखोरी प्रथा से जूझ रहा था, तब दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने अपना संघर्ष शुरू किया। इसके चलते उन्हें झारखंड के जंगलों की खाक छाननी पड़ी। वे सालों साल तक झारखंड के जंगलों में भटकते-फिरते रहे, जबकि पुलिस की गोलियां उनका पीछा करती रहीं। इसलिए उन्होंने जंगलों में कई रातें गुजारी। ऐसा इसलिए कि वे तत्कालीन सिस्टम से बागी हो गए थे।

देखा जाए तो साल 1970 के दशक तक झारखंड के सामाजिक राजनीतिक नक्शे पर शिबू सोरेन का उदय हो चुका था। यह एक ऐसा दौर था जब केंद्रीय राजनीति और राज्य की राजनीति विदेशी सत्ता के इशारे पर करवट ले रही थी। ऐसे में अलमस्त जवानी के तीसरे दशक से गुजर रहे गरम खून वाले दिशोम गुरु शिबू सोरेन अपने आदिवासियों के साथ अन्याय देखकर सुलग रहे थे। सच कहें तो वे बागी हो रहे थे। बगावत का बिगूल फूंक रहे थे। 

कहते हैं कि शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन पेशे से शिक्षक थे। वे व्यवहार से गांधीवादी थे। चूंकि वे सजग और सक्रिय थे, इसलिए महाजनों की आंख में खटकते थे। उस समय झारखंड में महाजनों का आतंक था। दरअसल, वे आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर उनसे कई गुणा पैसे वसूलते थे। वहीं, सूद न चुकाने पर कई बार उनकी जमीनें हड़प लेते थे। इस प्रकार कर्ज लेकर खेती करने वाले आदिवासियों को उनका हक नहीं मिल पाता था, क्योंकि महाजन उनका हिस्सा हड़प जाते थे।

बताया जाता है कि सोबरन सोरेन इसका विरोध करते थे। यही वजह रही कि रामगढ़, जहां शिबू सोरेन का जन्म हुआ था, के महाजन उनको पसंद नहीं करते थे। इसलिए 27 नवंबर 1957 की सुबह सोबरन सोरेन की हत्या कर दी गई। शिबू सोरेन तब पढ़ाई कर रहे थे। जब शिबू सोरेन को इस बात का पता चला तो उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। ततपश्चात वे इस जुल्म का प्रतिकार करने की सोचने लगे। इस एक व्यक्तिगत दुर्घटना ने शिबू सोरेन का राजनीतिक भाग्य तय कर दिया। 

उक्त घटना के बाद शिबू सोरेन ने आदिवासी लड़कों का गुट बनाना शुरू कर दिया। अपनी अनवरत सक्रियता के 13 साल बाद यानी 1970 आते आते शिबू सोरेन ने इस आंदोलन की कमान अपने हाथ में थाम ली। इसी दौरान उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि मिली। बाद में जनशोषण के खिलाफ इस मुहिम से आंदोलनकारी बिनोद बिहारी महतो और एके राय भी जुड़ गये। 

समय प्रवाह वश उन्हें धीरे-धीरे अपनी राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस हुई। इसे साकार करने के लिए ही 4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन और कॉमरेड एक के रॉय, बिनोद बिहारी महतो के घर में इकट्ठा हुए थे। इस बैठक में ये तय किया गया कि झारखंड में बदलाव और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया जाएगा। 

गौरतलब है कि इस घटना से महज एक साल पहले ही पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बन चुका था। चूंकि इस काम में बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का अहम रोल था। लिहाजा इसी 'मुक्ति' शब्द से प्रभावित होकर अलग झारखंड के सपने को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की गई।

ततपश्चात कुछ साल गुजरते ही, युवाओं की ताकत आते ही शिबू सोरेन ने धनकटनी आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन के तहत आदिवासी लड़के महाजनों की खड़ी धान की फसल काट लेते। इस दौरान आदिवासी युवा तीर-कमान लेकर उनकी रक्षा करते। यही तीर कमान कालांतर में शिबू सोरेन की राजनीतिक पहचान बन गई। उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह भी यही है।

सच कहूं तो इसी घनकटनी आंदोलन ने शिबू सोरेन को सियासी पहचान दी। इससे सालों से सताये आदिवासियों को शिबू में अपना नया नायक दिखने लगा, जो उन्हें सूदखोरी से, महाजनी से, शोषण से आजादी दिला सकता था। इसलिए सभी आदिवासी उनके पीछे एकजुट हो गए। इससे वो सुप्रसिद्ध नेता बन गए।

बताया जाता है कि शिबू सोरेन ने रामगढ़, गिरिडीह, बोकारो और हजारीबाग जैसे इलाकों में महाजनों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। उस दौरान जमींदार, महाजन समुदाय के लोगों ने छल प्रंपच और जाली तरीकों से आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर रखा था। इसलिए शिबू सोरेन अपने साथियों के साथ टुंडी, पलमा, तोपचांची, डुमरी, बेरमो, पीरटांड में आंदोलन चलाने लगे। 

इस आंदोलन के तहत प्रायः अक्टूबर महीने में आदिवासी महिलाएं हसिया लेकर आती और जमींदारों के खेतों से फसल काटकर ले जातीं। मांदर की थाप पर मुनादी की जाती। खेतों से दूर आदिवासी युवक तीर-कमान लेकर रखवाली करते और महिलाएं फसल काटती। इससे इलाके में कानून-व्यवस्था की स्थिति पैदा हो गई। फलस्वरूप हुए टकराव में लोगों की मौत हुई। ततपश्चात शिबू सोरेन छिपने के लिए पारसनाथ के घने जंगलों में चले गए और यहीं से आंदोलन चलाने लगे।

इस आंदोलन के दौरान गुरुजी ने अपने साथी आंदोलनकारियों के लिए एक मर्यादा की एक लकीर खींच दी थी। उन्होंने यह तय किया था कि ये लड़ाई खेत की है और खेत पर ही होगी। इसलिए इस पूरे आंदोलन में न तो महाजन और कुलीन वर्ग की महिलाओं के साथ कभी बदसलूकी की गई, और न हीं खेत छोड़कर उनके किसी और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया।

वहीं, 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। तब सरकारी अमले के पास असमीति शक्ति आ गई। इंदिरा ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया। लेकिन शिबू सोरेन तो फरार थे। उंस समय केबी सक्सेना धनबाद के डिप्टी कलेक्टर थे। वे शिबू सोरेन को समझते थे। उन्‍होंने शिबू सोरेन को कानून की गंभीरता और सियासी दांव पेच समझाया और उन्हें सरेंडर के लिए राजी किया। साल 1976 में शिबू सोरेन ने सरेंडर कर दिया। उन्हें धनबाद जेल में रखा गया।

धनबाद जेल की एक घटना बताती है कि राजनीति और सामाजिक जीवन में आंदोलनकारी रहे शिबू सोरेन निजी जिंदगी में कितने भावुक थे। जब शिबू सोरेन जेल में बंद थे, तब अक्टूबर-नवंबर का वक्त था। इस दौरान बिहार-झारखंड में छठ पर्व मनाया जाता है। जेल में एक महिला कैदी करुण स्वर में छठ के गीत गा रही थी। जब शिबू सोरेन जेल में महिला कैदी का गीत सुन कुछ समझ नहीं पाए, तो फिर उन्होंने झारखंड आंदोलन के एक दूसरे कार्यकर्ता और जेल में बंद झगड़ू पंडित से इस बारे में पूछा और पूरा वाकया समझे।

तब झगडू ने उन्हें बताया कि यह महिला हर बार छठ करती है। लेकिन इस बार एक अपराध के जुर्म में जेल में है, इसलिए वो छठ नहीं कर पा रही है। लिहाजा वो बहुत पीड़ा में छठ के गीत गा रही है। इस प्रकार उन्होंने एक गैर आदिवासी महिला की जब पीड़ा सुनी तो वे बेहद दुखी हुए। उन्होंने जेल में ही महिला के लिए छठ व्रत कराने का इंतजाम किया। 

चूंकि शिबू सोरेन इस समय तक आदिवासी नेता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे और अपना नेतृत्व कौशल भी दिखा चुके थे। इसलिए उन्होंने जेल में भी अपनी लीडरशिप क्वालिटी दिखाई। उंस वक्त शिबू सोरेन ने सभी कैदियों से अपील की कि वे एक सांझ का खाना नहीं खाएंगे और उस पैसे से ही छठ पूजा के लिए सामान खरीदा जाएगा। ऐसा ही हुआ भी। सभी कैदियों ने एक टाइम का खाना त्याग दिया और महिला ने पारंपरिक आस्था के साथ छठ पूजा की।

शिबू सोरेन महिला सम्मान के प्रति काफी सजग रहते थे और इसे बर्दाश्त नहीं करते थे। उनसे जुड़ी एक घटना का जिक्र करना यहां जरूरी है। वह यह कि शिबू सोरेन एक बार दुमका में एक कार्यक्रम का समापन कर धनबाद लौट रहे थे। इस समय शिबू इतनी जल्दी में थे कि उन्होंने रास्ते में रुककर ना तो खाना खाया और ना ही चाय पी। 

लेकिन एक बात हुई और अचानक बीच रास्ते में ही उनकी गाड़ी रुक गई। उस वक्त शिबू सोरेन एक गांव के अंदर पहुंचे, जहां उनके लिए खाट बिछाई गई। तब पता चला कि लड़की के साथ छेड़खानी का मामला है। इसलिए उन्होंने वहीं पर कचहरी लगा दी और फैसला सुनाकर ही वहां से रवाना हुए। हालांकि इस पंचायती की वजह से उन्हें धनबाद पहुंचने में 5-6 घंटे की देरी हो गई।

वह शिबू सोरेन के आंदोलन का दौर था। वे पलमा में जंगल में थे। रात का वक्त था और वे खाना खा रहे थे। तभी इस सन्नाटे में जंगल में एक कुत्ता भौंकने लगा। शिबू तुरंत चौकन्ना हो गए। उनका घर एक पहाड़ी पर था, वे वहां से कूदे और आगे चलकर देखते हैं कि पूरे पहाड़ी को फोर्स ने घेर लिया। शिबू सोरेन ने तुरंत डुगडुगी बजा दी। ये आस-पास के आदिवासियों को एक संकेत था। वहां तुरंत आदिवासियों का समूह पहुंच गया। इन लोगों ने शिबू सोरेन को अपनी सुरक्षा में ले लिया। भारी संख्या में आदिवासियों के आने के बाद पुलिस फोर्स को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा।

इस प्रकार तीन-तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बनने वाले शिबू सोरेन अपना पहला चुनाव 1980 में लड़े थे। लेकिन इस सियासी जंग में उन्हे हार मिली। हालांकि 3 साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में उन्हें जीत हासिल हुई। 1991 में उनकी पार्टी का बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से गठबंधन हुआ जिसमें झामुमो का प्रदर्शन शानदार रहा।
उन्होंने लगभग 10 बार संसद में झारखंड को प्रतिनिधित्व दिया। 

शिबू सोरेन की राजनीतिक विरासत उनके बेटे हेमंत सोरेन को मिली है। वर्तमान में झामुमो झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी है। वह इंडिया गठबंधन की सरकार चला रही है।
पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भी उनके निधन पर शोक जताया है। दिल्ली में पीएम मोदी ने उनका अंतिम दर्शन भी किया। वहीं, बिहार के सीएम नीतीश कुमार, पूर्व सीएम जीतनराम मांझी, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद समेत कई नेताओं ने दिशोर गुरु शिबू सोरेन को श्रद्धांजलि दी है।

बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने भी शिबू सोरेन के निधन पर शोक जताया है। उन्होंने कहा है कि झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन जी का निधन दुःखद है। स्व॰ शिबू सोरेन जी एक प्रख्यात राजनेता थे। वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे थे। झारखंड की राजनीति में उनका अहम योगदान रहा है। उनके निधन से न केवल झारखंड बल्कि पूरे देश के राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में अपूरणीय क्षति है।

वहीं, बिहार के पूर्व सीएम जीतनराम मांझी ने शोक संवेदना व्यक्त करते हुए कहा है कि झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री दिशोम गुरु शिबू सोरेन जी के निधन से व्यथित हूँ। ईश्वर उनके पुण्य आत्मा को शांति प्रदान करे। उनके परिजनों और समर्थकों को ये अपार कष्ट सहन करने की शक्ति प्रदान करे। देश के आदिवासी समाज के विकास में किए गएं उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा।

वहीं, संयुक्त बिहार में मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव ने शिबू सोरेन के निधन को राजनीति बड़ा नुकसान बताया है। साथ बिताए दिनों को याद करते हुए लालू प्रसाद भावुक हो गए। लालू प्रसाद ने कहा कि शिबू सोरेन दलित आदिवासी के बड़े नेता थे। उनका जाना देश की राजनीति के लिए बड़ी क्षति है। उनके साथ लंबे समय तक काम करने का मौका मिला। जब बिहार और झारखंड एक था तो उनके साथ काम किया। गुरुजी से मेरी काफी घनिष्टता थी। उनके नहीं रहने का बहुत अफसोस है। हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं कि उनकी आत्मा को शांति मिले। उनके आश्रितों को दुख सहने की शक्ति मिले। उन्होंने कहा कि हेमंत सोरेन से बात करेंगे।

वहीं, कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी ने कहा कि हम लोगों के लिए यह बहुत दुखद सूचना है। परिवार और परिजनों के प्रति हम सब की गहरी संवेदना है। मैंने कल्पना जी को मैसेज भी भेजा है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तरप्रदेश की योगी सरकार की उत्कृष्ट प्रबंधकीय व्यवस्था का अनुपम उदाहरण है महाकुंभ 2025

सद्कर्म और श्रम आधारित फल पर जीने का प्रयास और रियाज कीजिए, सुख-शांति मिलेगी

सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ एसपी सिंह बैकुंठ लोक पहुंचे, जिलाधिकारी ने शोक व्यक्त किया, नाना जी की याद में नाती-नतिनी ने लिखा भावनात्मक पत्र