बिहार: क्या राजनीतिक पर्यटन से इतर कोई ठोस सियासी संदेश दे पाएगा वोटर अधिकार यात्रा?


बिहार: क्या राजनीतिक पर्यटन से इतर कोई ठोस सियासी संदेश दे पाएगा वोटर अधिकार यात्रा?
@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

कांग्रेस सुप्रीमो रहे लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के दृष्टिगत, केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा शुरू किए गए मतदाता सूची के "विशेष गहन पुनरीक्षण" (एसआईआर) अभियान की सड़क से सांसद तक पुरजोर मुखालफत की है। इस पर उन्हें विपक्षी पार्टियों का भी उसी तरह से साथ मिला है, जिस तरह से उनकी "संविधान बचाओ अभियान" को भरपूर साथ मिला था। 

यही वजह है कि रविवार को उन्होंने "मतदाता (वोटर) अधिकार यात्रा" का आगाज दलित नेता व पूर्व कांग्रेसी उपप्रधानमंत्री स्व. जगजीवन राम के गृह क्षेत्र सासाराम से किया है, जो उनकी पुत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीमती मीरा कुमार की भी कर्मभूमि समझी जाती है। शायद दलित मतदाताओं को पुनः पार्टी से जोड़ने के लिए ही बिहार प्रदेश कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष दलित नेता राजेश कुमार को बनाया गया है। 

इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या उनकी यह वोटर अधिकार यात्रा भी पिछली  राजनीतिक पर्यटन सरीखी यात्राओं से इतर कोई नया व ठोस सियासी संदेश दे पाएगी, जिसका बिहार को बेसब्री से इंतजार है? ऐसा इसलिए कि जैसे उत्तरप्रदेश (यूपी) के 'दो लड़कों' ने यानी कांग्रेस युवराज राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी युवराज अखिलेश यादव ने आम चुनाव 2024 के दौरान उत्तरप्रदेश में जो कमाल कर दिखाया, वैसा करिश्मा दिखाने में बिहार के 'दो लड़के' यानी कांग्रेस युवराज राहुल गांधी और राष्ट्रीय जनता दल युवराज तेजस्वी यादव बिल्कुल असफल दिखाई दिए थे। 

समझा जाता है कि तब जहां अखिलेश यादव ने राजनीतिक दूरदर्शिता दिखाई थी, वहीं तेजस्वी यादव ने सियासी हठधर्मिता के चलते कांग्रेस के देशव्यापी अरमानों पर पानी फेर दिया था। आप महसूस करते होंगे कि बिहार के दो लड़के यदि "मगध" में करिश्मा दिखा दिए होते तो आज केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो सकती थी! लिहाजा, पूरक सवाल है कि क्या बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की पूरी सियासी गठबंधन व प्रचार प्रक्रिया के दौरान ये 'दोनों लड़के' अपनी ही पुरानी गलतियों से सबक लेंगे? 

यह सबक इसलिए भी जरूरी है, ताकि वहाँ पिछले 20 वर्षों से अल्पकालीन ब्रेक के बाद पुनः सत्तारूढ़ हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (भाजपा-जदयू आदि) यानी एनडीए के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपदस्थ कर पाएं, जो बिहार की सियासत के स्वयम्भू चाणक्य समझे जाते हैं। शायद राहुल गांधी को यह भी पता होगा कि उसी नीतीश कुमार की असीम राजनीतिक कृपा से ही तेजस्वी यादव जैसे लड़के बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री कहला पा रहे हैं। 

यह प्रश्न मैं इसलिए उठा रहा हूँ कि इनके सियासी डीएनए में जो मौलिक तफरका है, उसे स्पष्ट रूप से आप प्रबुद्ध लोग भी महसूस कर रहे होंगे। उदाहरण के तौर पर आपने देखा होगा कि गत लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद यूपी के दोनों लड़के पारस्परिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा वश बहक गए और कुछ महीने बाद ही वहां हुए 11 सीटों के लिए यूपी विधानसभा उपचुनाव के दौरान अपनी अर्जित प्रतिष्ठा तक गंवा दी। 

इसलिए सम्भव है कि निकट भविष्य में मिली सफलता के बावजूद बिहार के दोनों लड़के भी ऐसा ही करें और यूपी के मतदाताओं की तरह बिहार के मतदाता भी ठगे रह जाएं। इसलिए बिहारियों को भी इनकी सियासी महत्वाकांक्षाओं से सावधान रहना होगा, अन्यथा आगामी 5 वर्षों तक यही जपते रहेंगे कि सेक्युलर भैंस पुनः गई पानी में!

प्राप्त जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा आज सासाराम जिले से शुरू होकर अगले 16 दिनों तक चलेगी। यह वोटर अधिकार यात्रा जिसे बुद्धिजीवी लोग राजनीतिक पर्यटन यात्रा समझते आए हैं, तकरीबन 22-23 जिलों से होकर गुजरेगी और राज्य की राजधानी पटना में आगामी 1सितंबर को खत्म होगी। 

इस प्रकार लगभग 1300 किलोमीटर का सफर राहुल गांधी तय करेंगे और चतुराई भरा निर्णय लेंगे तो प्रदेश में पार्टी की खोई हुई प्रतिष्ठा भी 2029 से पहले पा सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें लकीर की फकीर वाली घिसी पिटी राजनीति से निकलना होगा और राष्ट्रवादी टच वाली प्रदेशवादी विकासात्मक सियासत करनी होगी। 

तब शायद तेजस्वी यादव ही इस दिशा में पहली रोड़ा अटकायेंगे। यह बात मैं इसलिए आगाह कर रहा हूँ क्योंकि 
वोटर अधिकार यात्रा में तेजस्वी यादव और महागठबंधन के अन्य नेता भी राहुल के साथ 'सियासी सहबाला' की तरह रहेंगे। इस प्रकार देखा जाए तो बिहार विधानसभा चुनाव के करीब डेढ़-दो माह पहले हो रही ये सियासी यात्रा अपने समापन के दिन पटना में महागठबंधन की महारैली के रूप में तब्दील होकर खत्म होगी और अपने समर्थकों को यह संदेश देगी कि मेरा पुनः साथ दीजिए, अब जंगलराज पार्ट 2 कभी नहीं दोहराने दिया जाएगा! वो भी तब जब राहुल गांधी बिहार के लोगों को आश्वस्त करेंगे। 

वहीं, सबसे अहम सवाल है कि "वोट चोरी" के जिन दावों को लगातार राहुल गांधी धार दे रहे हैं, और हरियाणा/महाराष्ट्र के उदाहरण देकर उससे तुलना भी कर रहे हैं, यदि यह बैक फायर कर गया तो क्या होगा? यक्ष प्रश्न है, क्योंकि राहुल गांधी के साथ राजद नेता तेजस्वी यादव भी होंगे, जिनके पिताजी और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद अपने चुनावी कदाचार और विपक्षी मतदाता उत्पीड़न के लिए मशहूर रहे हैं।

इसलिए सवाल पुनः पैदा होता है कि क्या वोटर अधिकार यात्रा के जरिये राहुल गांधी बिहार में वही राजनीतिक प्रयोग आजमाएंगे, जिसका सफल ट्रायल उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी में कर दिखाया था? लेकिन यह पर उन्हें यह पता होना चाहिए कि यूपी के सवर्ण भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ उनका जो झूठ सच में तब्दील हो गया, किंतु वही झूठ बिहार के ओबीसी जदयू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने टांय टांय फिस्स भी हो सकते हैं, क्योंकि नीतीश कुमार, योगी आदित्यनाथ की तरह उदार नहीं, बल्कि बहुत पेंचीदे हैं और अपनी अतड़ी वाले सियासी दांत से अच्छे अच्छों को पीस कर मिट्टी में मिला चुके हैं।

हां, यह सही है कि बिहार में जारी वोटर लिस्ट स्पेशल इंसेंटिव रिवीजन यानी एसआईआर में गड़बड़ी और 'वोट चोरी' के आरोपों को लेकर निकाली जा रही इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी की कोशिश बिहार में गरीब तबके यानी दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक को दोबारा कांग्रेस के साथ जोड़ने की होगी। इसलिए रैली के ठीक एक दिन पहले कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि दलित-वंचित के साथ पीड़ित-शोषित और अल्पसंख्यकों से पहले वोट का अधिकार छीना जा रहा है। फिर उनकी सियासी भागीदारी छीनी जाएगी। 

मतलब कि इशारा साफ है कि राहुल गांधी  की कोशिश एनडीए की तरफ झुकाव रखने वाले दलितों-महादलितों और अति पिछड़ा वोट बैंक में सेंध लगाने की होगी। लेकिन अपने इस इरादे में कांग्रेस कितनी सफल होगी, यह तो आपसी टिकट बंटवारा और टिकट वितरण के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा। तभी तो पार्टी से लेकर महागठबंधन तक में जो सिरफुटौव्वल मची है, वह शायद इस यात्रा से दूर हो जाए।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि मुस्लिमों की तरह दलित भी बिहार में कांग्रेस का एक बड़ा वोटबैंक रहा है, जिसे पुनः पाने के लिए कांग्रेस प्रतिबद्ध दिख रही है। ऐसा इसलिए कि यूपी-बिहार की दलित पार्टियां अपनी साख दलितों के बीच गंवा चुकी हैं और वो भाजपा की तरफ लौट रहे हैं, जबकि कांग्रेस अपनी ओर खींचना चाहती है। 

कांग्रेस को पता है कि ओबीसी वोटबैंक के लिए समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों व भाजपा में रस्साकशी चल रही है, इसलिए मुसलमानों के लौटते विश्वास की तरह ही यदि वह दलितों का विश्वास पाने में सफल हो गई तो राहुल-प्रियंका की सियासत को एक मजबूत जनाधार मिल जाएगा। 

यही वजह है कि राहुल-तेजस्वी की कोशिश मुस्लिम-यादव के साथ दलित वोटों को महागठबंधन के पाले में खींचने की है। बताते चलें कि बिहार में दुसाध-पासी वोट के साथ अन्य दलित जातियों का 55 से 65 फीसदी वोट भी एनडीए के पाले में जाता रहा है, लेकिन 2024 के आम चुनाव में इसमें 
जबरदस्त गिरावट देखी गई है।

यही वजह है कि उनकी वोटर अधिकार यात्रा सासाराम से शुरू होने के बाद  औरंगाबाद, गया, नालंदा-नवादा, शेखपुरा, लखीसराय, मुंगेर, भागलपुर, पूर्णिया, कटिहार, अररिया, सुपौल, दरभंगा, सीतामढ़ी, मधुबनी, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, गोपालगंज, सीवान, छपरा और आरा जैसे दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यक बहुल इलाकों से गुजरेगी।

समझा जाता है कि पिछले आम चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में दो लड़कों (राहुल गांधी और अखिलेश यादव) ने संविधान बदलने को लेकर एक ऐसा ही काल्पनिक नैरेटिव गढ़ा था, जो एक हद तक सफल भी रहा। क्योंकि जहां भारतीय संविधान के लाल किताब गुटका संस्करण लेकर राहुल गांधी ने हर रैली में बीजेपी के 400 पार के जाने और संविधान बदल देने का आरोप लगाते हुए अपने पक्ष में माहौल बनाया। 

जिसका सीधा असर उत्तर प्रदेश के 20 फीसदी दलित वोटों पर पड़ा, जो मायावती के हाशिये पर जाने के बाद नया सियासी ठौर तलाश रहा था। नतीजा ये रहा कि सपा और कांग्रेस ने मिलकर यूपी की 43 लोकसभा सीटें जीत लीं। खास बात यह कि 2019 के लोकसभा चुनाव में एक सीट जीतने वाली कांग्रेस को छह सीटें मिलीं, जबकि लगातार दो चुनाव में अकेले बहुमत हासिल करने वाली भाजपा महज 240 सीट पर ही ठिठक गई और उसे नीतीश-नायडू की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा।

यही वजह है कि आज बिहार में हर सेक्युलर व्यक्ति के मुंह पर यह सवाल है कि क्या वोटर अधिकार यात्रा बिहार में सफल होगी? वहीं, पटना-दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में ये सवाल लगातार कौंध रहा है कि क्या बिहार में ये दो लड़के वो कमाल कर पाएंगे, जो कि यूपी में ठीक एक साल पहले वैसे ही दो लड़कों (राहुल गांधी और अखिलेश यादव) ने किया था?  

आपको पता होना चाहिए कि बीजेपी के खिलाफ विगत 12 वर्षों से सक्रिय रहे राहुल गांधी ही इन दोनों सियासी यात्राओं के केंद्र में हैं और मुख्य किरदार की भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए अब बिहार की सियासी मुहिम में भी राहुल गांधी ने फ्रंट सीट पर आगे बढ़कर कमान संभाली है।

हालांकि यूपी में जिस तरह अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी विपक्षी गठबंधन में अगुवाई कर रही थी, वहीं बिहार में महागठबंधन का नेतृत्व राजद के हाथों में है, जो सवर्ण और दलित नेताओं को पशोपेश में डाल रहा है, क्योंकि समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति अमूमन सवर्णों व दलितों के खिलाफ ही रहती आई है, जब ये सत्ता में मजबूत थे।

वहीं, राजनीतिक टीकाकार यह भी बता रहे हैं कि राहुल गांधी की ये यात्रा असल में कांग्रेस को बिहार में मुख्य मुकाबले में लाने की एक रणनीतिक जद्दोजहद है, क्योंकि विवादित ढांचा विध्वंस होने के बाद जिस तरह से उत्तर प्रदेश में मुस्लिम-दलित वोट बैंक कांग्रेस से छिटककर क्षेत्रीय दलों सपा-बसपा आदि के पाले में चला गया, वही कहानी बिहार में भी भागलपुर सांप्रदायिक दंगे के बाद दिखी, जहां ज्यादातर मुस्लिमों ने जनता दल और उससे निकले आरजेडी, जदयू, लोजपा को अपना रहनुमा मान लिया, जिससे कांग्रेस कमजोर होती चली गई। 

बताया जाता है कि यह वही दुर्भाग्यपूर्ण कांग्रेसी दौर रहा, जब दक्षिण भारतीय कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने उत्तर भारत में कांग्रेस को कमजोर बनाने की अपनी गुप्त रणनीति के तहत लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान और मायावती के नेतृत्व वाली पार्टियों से गठबंधन करते हुए कांग्रेस को कमजोर करना शुरू किया था, जिसकी कीमत आज तक कांग्रेस चुका रही है।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1992 के बाद से यूपी की तरह बिहार में भी कांग्रेस का स्ट्राइक रेट अत्यंत निराशाजनक रहा है। ऐसा इसलिए कि जब सवर्ण नेता पार्टी की अव्यवहारिक राजनीति से छिटके तो औरों को भी इधर उधर भेज दिए, ताकि भाजपा मजबूत हो। 

वहीं, सवर्ण विरोधी महागठबंधन की सियासत के सुरमाभोपाली नेता भी हार ठीकरा भी कांग्रेस के लचर प्रदर्शन पर ही फोड़ते आए हैं, क्योंकि कांग्रेस अपना सवर्ण वोट उन्हें ट्रांसफर नहीं करवा पाती है। यही वजह है कि महागठबंधन में कांग्रेस की सीटों का कोटा भी कम हुआ करता है, जबकि भाकपा माले जैसे छोटे दल ने बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में 19 में से 16 सीटें जीतकर बड़े-बड़े दलों को रणनीतिक आईना दिखाया था। 

यही वजह है कि कांग्रेस अब अपनी ट्रू कॉपी बन चुकी भाजपा से क्षुब्ध सवर्णों के बजाय अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों को अपनी ओर खींचने के लिए प्रयासरत है। इसलिए तो उसने कद्दावर भूमिहार प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह को भी कन्हैया कुमार के इशारे पर बदल दिया और दलित नेता राजेश कुमार को प्रदेश की कमान सौंप दी।

वहीं, वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राजद भी अपना महत्व जताने के लिए सजग है और ड्राइविंग सीट पर बैठने को उत्सुक भी। जानकार बताते हैं कि राहुल गांधी की पिछली 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' के दौरान भी तेजस्वी यादव ने राजद के नेतृत्व को दर्शाया था और अब इस वोटर (मतदाता) अधिकार यात्रा के जरिए भी उसी संदेश को मजबूत किया जा रहा है। इसी उद्देश्य से यह यात्रा भी महागठबंधन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों से गुजरेगी।

स्मरण रहे कि तेजस्वी यादव ने इससे पहले भी कई यात्राएं अपने दम पर की हैं। उन्होंने सत्ता के संघर्ष में अब तक पांच यात्राएं- बेरोजगारी हटाओ यात्रा, संविधान बचाओ यात्रा, जन विश्वास यात्रा, आभार यात्रा, जन संवाद यात्रा की है, 
जिनसे युवाओं को आकर्षित करने और संगठन को मजबूत करने में उन्हें काफी मदद मिली है।

उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष यानी 2024 में जब राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के दूसरे चरण यानी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दूसरे चरण में सासाराम पहुंचे थे, तब तेजस्वी यादव ने अपनी लाल जीप चलाकर यह संदेश देने की सफल कोशिश की थी कि बिहार में महागठबंधन की ड्राइविंग सीट पर राजद ही बैठी है और यहां कांग्रेस उसकी एक अदद सहयोगी पार्टी भर है। 

यही वजह है कि इस साल यानी 2025 के शुरुआती महीनों में नेतृत्व के सवाल को लेकर महागठबंधन में थोड़ी अनबन भी हुई थी, लेकिन मतदाता अधिकार यात्रा के एक चर्चित प्रचार गीत के जरिए भी राजद ने एक बार फिर अपने उसी  संदेश को पुख्ता किया है। यह महज संयोग नहीं, बल्कि सोची समझी रणनीति ही है कि यह गीत सबसे पहले सासाराम में ही बजेगा, जहां से तेजस्वी यादव, राहुल गांधी के साथ वोटर (मतदाता) अधिकार यात्रा की शुरुआत करने वाले हैं। 

बताया जाता है कि यह यात्रा भी उन्हीं इलाकों से होकर गुजरेगी, जिन्हें महागठबंधन यानी राजद व कांग्रेस अपनी राजनीति के लिए उपजाऊ मानते हैं। बता दें कि राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की पिछली यात्राओं में भी उनका खास फोकस केवल उन्हीं इलाकों पर रहा था। 

तभी तो बाद में हुए लोकसभा चुनाव 2024 और बिहार विधानसभा उपचुनाव ने भी यह साबित कर दिया कि चुनावी प्रदर्शन के लिहाज से महागठबंधन के वे दौरे पूरी तरह से सफल रहे थे। शायद उसी सफलता ने राहुल गांधी-तेजस्वी यादव को इस बार फिर से एकजुट होकर पहले की भांति ही काम करने के लिए प्रेरित किया है। 

हालांकि, इस पृष्ठभूमि में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) एक सामयिक और प्रासंगिक मुद्दा बन गया, जो पिछले संविधान बचाओ मिशन की तरह ही इस बार भी सियासी तुरुप का पत्ता साबित हो सकता है। 

बताते चलें कि बिहार में भारत जोड़ो न्याय यात्रा दो चरणों में हुई थी। जिसका पहला चरण 29 जनवरी से 31 जनवरी 2024 तक चला था। इस दौरान राहुल गांधी सीमांचल के चार लोकसभा क्षेत्रों (किशनगंज, अररिया, पूर्णिया, कटिहार) से गुजरे और पश्चिम बंगाल के लिए रवाना हुए। 
वहीं, दो दिनों के दूसरे चरण (15 से 16 फरवरी 2025) में भी वे चार लोकसभा क्षेत्रों (औरंगाबाद, काराकाट, सासाराम, बक्सर) से गुजरे। 

इस प्रकार यदि पूर्णिया में कांग्रेस सांसद रंजीता रंजन के पति और निर्दलीय सांसद पप्पू यादव की जीत को भी शामिल कर लें, तो इनमें से सात क्षेत्रों में महागठबंधन विजयी रहा, जो बिहार की समकालीन राजनीति के लिए बहुत बड़ी बात समझी जाती है। इसमें जहां कांग्रेस ने अपने हिस्से की तीनों सीटें (किशनगंज, कटिहार, सासाराम) जीतीं। वहीं, काराकाट भाकपा (माले) के खाते में गई, जबकि औरंगाबाद और बक्सर राजद के खाते में गई।

इस प्रकार महागठबंधन ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस यात्रा से विपक्षी एकता मजबूत हुई। साथ ही सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और जनहित के मुद्दों पर जनमत तैयार हुआ। शायद इसी एकता और जनमत के उद्देश्य से अब वोटर (मतदाता) अधिकार यात्रा की बारी है, जिसमें राहुल गांधी के लिए चाणक्य और तेजस्वी यादव के लिए चंद्रगुप्त की भूमिका पूर्व निर्धारित है। 

 उल्लेखनीय है कि 2020 में विधानसभा चुनाव से पहले भी राजद नेता तेजस्वी यादव की बेरोजगारी हटाओ यात्रा ने युवाओं को खूब आकर्षित किया था। नतीजा यह हुआ कि चुनाव में 18-39 साल के मतदाताओं ने महागठबंधन को 47 फीसदी समर्थन दिया, जबकि एनडीए को महज 34-36 फीसदी। तब 78 लाख पहली बार वोट देने वाले (18-25 साल) मतदाताओं ने कथित जंगल-राज से ज्यादा रोजगार को महत्व दिया था।

उसी से उत्साहित होकर तेजस्वी यादव ने इस बार के विधानसभा चुनाव का घोषणापत्र तैयार करने के उद्देश्य से जन संवाद यात्रा की थी, जिसका समापन नालंदा में हुआ, जहाँ तेजस्वी ने बिहार के समावेशी विकास का खाका पेश किया। इसमें रोज़गार के साथ-साथ उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा पर विशेष ज़ोर दिया गया। यद्यपि विपक्षी भाजपा-जदयू गठबंधन (राजग/एनडीए) ने राजद की यात्राओं को आधी-अधूरी बताते आए हैं, जबकि राजद नेतृत्व का मानना है कि संगठन विस्तार और तेजस्वी यादव की छवि निखारने के लिए वे यात्राएं बेहद उपयोगी रहीं हैं।

यह बात अलग है कि नीतीश सरकार उनमें से कई वादों पर घोषणाएँ भी कर चुकी है और कुछ घोषणाओं पर अमल भी शुरू हो गया है। इसलिए नेता बताते हैं कि तेजस्वी की यात्राओं की सफलता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है! सरकार भी अब इतने दबाव में है कि उसे तेजस्वी के वादों की नकल करनी पड़ रही है! इसके लिए बिहार के लोग भी उनके आभारी हैं क्योंकि नेता प्रतिपक्ष की सही भूमिका उन्होंने निभाई है। शायद इसलिए राहुल गांधी भी बिहार की सियासी चुनावी बैतरणी पार करने के लिए तेजस्वी यादव की पूंछ पकड़कर भी कांग्रेस को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध नजर आ रहे हैं।

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