भारत की 'रणनीतिक स्वायत्तता' की नीति से शिकस्त खा चुकी हैं वैश्विक कूटनीति की शतरंजी चालें!


भारत की 'रणनीतिक स्वायत्तता' की नीति से शिकस्त खा चुकी हैं वैश्विक कूटनीति की शतरंजी चालें!

@ कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

गुटनिरपेक्ष राष्ट्र भारत ने दुनिया के थानेदार अमेरिका, वैश्विक थानेदारी की 'अमेरिकी कुर्सी' को हथियाने को आतुर चीन और भारत विरोधी तमाम तिकड़मों के केंद्र बिंदु बन चुके शत्रु देश पाकिस्तान को सीधा और स्पष्ट संदेश देते हुए यह साफ कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय मुश्किल वक्त के पैमाने पर हर समय खरे उतरे भारत और रूस के रिश्ते कभी नहीं टूटेंगे। 

उल्लेखनीय है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच हुई पिछली एक मुलाकात में रणनीतिक साझेदारी (स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी), रक्षा सहयोग (डिफेंस को-ऑपरेशन) और ऊर्जा सुरक्षा (एनर्जी सिक्योरिटी) पर गहन चर्चा हुई। जिसके बाद दोनों नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि बदलते वैश्विक समीकरणों के बावजूद भारत-रूस की दोस्ती जो दशकों से मजबूत रही है और आगे भी कायम रहेगी।

बता दें कि यह बयान ऐसे समय पर आया है जब पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका, की ओर से रूस के साथ भारत के संबंधों पर कतिपय सवाल दर सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अमेरिकी प्रतिबंधों की धमकी के बावजूद भारत ने रूसी तेल खरीदा है और रूस के साथ निज कूटनीतिक संबंध बनाए रखे हैं। लिहाजा, इन कार्रवाइयों ने रूस को कूटनीतिक और आर्थिक रूप से अलग-थलग करने के पश्चिमी प्रयासों को कमजोर किया है। 

परिणामस्वरूप, कुछ विश्लेषकों ने यह भी सुझाव दिया है कि भारत पश्चिम के देशोंबका एक "अविश्वसनीय" साझेदार हो सकता है। इस बारे में पश्चिमी देशों को सिर्फ  इतना ही याद दिलाना चाहूंगा कि तुम्हारी कथनी और करनी के अंतर को भारत बखूबी समझता है। ऑपरेशन सिंदुर के बाद पाकिस्तान को लेकर बदले अमेरिकी-चीनी पैंतरे ने भारत के विश्वास को और मजबूत किया है।

वहीं, चीन और पाकिस्तान की नजदीकियों को लेकर भारत ने भी यह स्पष्ट संदेश दिया है कि वह अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों के आधार पर तय करता है, न कि किसी के स्वार्थवश उपजे दबाव में। तभी तो वैश्विक विशेषज्ञों के द्वारा भी अब यह कहा गया है कि, भारत का ताजा बयान न केवल भारत की रणनीतिक स्वायत्तता (स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी) को दर्शाता है बल्कि वैश्विक मंच पर उसकी स्वतंत्र और संतुलित नीति का भी प्रमाण है। 

भारतीय मामलों के जानकार बताते हैं कि निकट भविष्य में भी यह विकसित सोच-समझ अपरिवर्तनीय रहेगी। उधर, दूसरे भरोसेमंद रणनीतिक पार्टनर इजरायल के साथ भी इसी आधार पर प्रगाढ़ सम्बन्ध विकसित किए जाएंगे। आशियान देशों, बिम्सटेक देशों, अरब देशों और यूरेशियाई देशों के साथ भी इसी तर्ज पर सम्बन्ध विकसित किए जाएंगे। यदि चीन हमारी मूल भावनाओं को समझने में नाकाम रहेगा तो इसके साथ भी वही सुलूक किया जायेगा।

यही वजह है कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की विकसित होती स्थायी नीति को हम सबको समझना होगा। मसलन, अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों ने रूस के साथ भारत के स्थायी संबंधों को रणनीतिक स्वायत्तता की नीति के प्रति उसकी अंतर्निहित प्राथमिकता का बेहद सफल व सुखद परिणाम बताया है। इस बारे में यहां तर्क दिया गया है कि रणनीतिक स्वायत्तता की नीति समय के साथ भू-राजनीतिक परिवेश में बदलावों से प्रेरित होकर विकसित हुई है। 

सच कहूं तो यह भारतीय विदेश नीति की अंतर्निहित और अपरिवर्तनीय विशेषता नहीं है, बल्कि इनके प्रेरकों को समझकर, रूस के साथ भारत के संबंधों को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। ऐसा इसलिए कि पश्चिमी देशों के लिए यह बेहद निराशाजनक बात रही कि भारत ने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा करने वाले कई संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों पर अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई और पुतिन के कार्यों की सार्वजनिक रूप से आलोचना करने से इनकार कर दिया। 

इसके अलावा, अमेरिकी प्रतिबंधों की धमकी के बावजूद भारत ने रूसी तेल खरीदा है और रूस के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए रखे हैं। बताया जाता है कि इन भारतीय कार्रवाइयों ने रूस को कूटनीतिक और आर्थिक रूप से अलग-थलग करने के पश्चिमी प्रयासों को कमजोर किया है। यही वजह है कि कुछ पश्चिमी विश्लेषकों ने सुझाव दिया है कि भारत जैसा देश पश्चिम का एक "अविश्वसनीय" साझेदार हो सकता है।

वहीं, कुछ अन्य विश्लेषकों ने भारत के मौजूदा दौर की विदेश नीति के निर्णयों का श्रेय उसकी कूटनीतिक और रणनीतिक रूप से कुशलता बढ़ाने वाले तौर-तरीकों को अपनाने की मजबूत दृढ़ इच्छा शक्ति को दिया है। लेकिन ये व्याख्याएँ रूस के साथ भारत के जुड़ाव और रणनीतिक स्वायत्तता की नीति, दोनों के आधारभूत रणनीतिक तर्क को नज़रअंदाज़ कर देती हैं। 

देखा जाए तो चीन की चुनौती से निपटने की भारत की रणनीति में रूस का स्थान वैसा नहीं है, जैसा कि भारत के पश्चिमी साझेदारों का है। लेकिन महज इसके लिए रूस का साथ छोड़ना भारत के लिए रणनीतिक मूर्खता साबित होगी। क्योंकि पश्चिमी देशों का व्यवहार स्वभाव से ही धूर्त जैसा रहता आया है। 

इसके अलावा, भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की नीति इसके भू-राजनीतिक परिवर्तनों के अनुरूप विकसित हुई है, जिनके प्रत्येक परिवर्तन में इसकी बारीकियाँ अंतर्निहित हैं। कुलमिलाकर यह नीति जिस भू-राजनीतिक परिदृश्य पर प्रतिक्रिया दे रही है, उसे समझना और उसकी रणनीति में प्रत्येक देश का स्थान समझना, भारत के निर्णयों की बेहतर व्याख्या करने में मदद कर सकता है। 

अंततः, भारत रूस के साथ जुड़ाव के पीछे एक रणनीतिक तर्क देखता है। लेकिन आज भारत जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनकी प्रकृति को देखते हुए, पश्चिम भी भारत का महत्वपूर्ण साझेदार बना रहेगा, ताकि दगाबाज चीन को उसके जूते के आकार के अंदर रखा जा सके।

इस प्रकार से भारतीय विदेश नीति में रणनीतिक स्वायत्तता/सामरिक स्वायत्तता की नीति पारंपरिक रूप से उन प्रमुख भू-राजनीतिक घटनाओं के जवाब में रही है, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गतिशीलता को बदल दिया। ऐसी घटनाओं ने भारत के लिए खतरों या जोखिमों के नए स्रोत पैदा किए, और इसकी सामरिक स्वायत्तता की नीति इन जोखिमों से निपटने का एक साधन थी।

सच कहूं तो पहली भू-राजनीतिक घटना सोवियत संघ का पतन और शीत युद्ध की समाप्ति थी। मसलन, इस समय, दुनिया स्पष्ट रूप से एकध्रुवीय हो गई, और भारत ने अपनी प्रमुख महाशक्ति संरक्षक यानी यूएसएसआर को खो दी। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय एजेंडा पेश किया जो भारत के दृष्टिकोण से विस्तारवादी और दखलंदाज़ी भरा प्रतीत हुआ। 

वहीं, पश्चिमी देशों के समर्थन से, वैश्विक संस्थाएँ भी तेज़ी से सक्रिय और दखलंदाज़ होती गईं। उनका परमाणु अप्रसार एजेंडा भारत के परमाणु कार्यक्रम के विपरीत था, और जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर संघर्ष के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाने पर अड़ा हुआ था। दोनों ही भारत के प्रमुख राष्ट्रीय हित थे जिन पर समझौता उसे अस्वीकार्य था। 

इस बीच, भारत अभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका को एक संभावित प्रमुख साझेदार के रूप में देखता था, जो उसकी विदेश नीति के प्रमुख उद्देश्यों को प्राप्त करने में उसकी मदद कर सकता था। इसी के जवाब में, भारत ने अमेरिका के साथ बातचीत करते हुए भी उसके खिलाफ़ सुरक्षा उपाय किए। निश्चित रूप से, सदी के अंत में दोनों देशों के बीच संबंधों में सुधार हुआ और बुश प्रशासन के दौरान इसमें नाटकीय रूप से तेज़ी आई। 

लेकिन खास बात यह रही कि अमेरिका के साथ बातचीत करते हुए भी, भारत ने अमेरिकी एकध्रुवीयता के नकारात्मक प्रभावों से बचाव के लिए मध्यम शक्तियों के छोटे गठबंधनों में भी अच्छा-खासा निवेश किया। लिहाजा भारत का ध्यान 'समूह 20' (G20), ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) और आईबीएसए (भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका) जैसे संगठनों पर केंद्रित था। 

इस प्रकार एक सुधारित और लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था के नए दृष्टिकोण ने भी भारत, रूस और चीन को 2002 से एक विशिष्ट त्रिकोणीय साझेदारी के रूप में जुड़ने के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा, 'समूह 7' (जी-7) की बैठकों में भी वह भाग लेता रहा, ताकि फ्रांस, जर्मनी, जापान, इंग्लैंड पर भी उसके प्रभाव बढ़ें।

हालांकि, इस दिशा का अगला व्यवधान वैश्विक वित्तीय संकट (2008) के बाद ओबामा प्रशासन के शुरुआती वर्षों में आया। जब ओबामा प्रशासन ने चीन के साथ अपने संबंधों को तथाकथित जी2 (G2) कॉन्डोमिनियम के माध्यम से एक महाशक्ति समझौता बनाने की आशा में आगे बढ़ाया। जबकि भारत में, इस समझौते को लेकर कुछेक चिंताएँ भी थीं। 

यही वजह है कि अमेरिका द्वारा उन्हें बाहर रखे गए एक समझौते के माध्यम से त्याग दिए जाने के विचार ने भारतीय नीतिगत हलकों में कुछ आत्मचिंतन को जन्म दिया। इसके अलावा, भारत को उभरते चीन का सामना करना पड़ा, जिसके साथ उसके हितों का बुनियादी टकराव था। ऐसे में स्वाभाविक रूप से भारत खुद को ऐसी प्रतिस्पर्धा में नहीं फँसाना चाहता था, जिसमें त्याग दिए जाने की संभावना हो।

इस प्रकार, सामरिक स्वायत्तता की दूसरी पुनरावृत्ति का उद्देश्य संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने संबंधों को पुनर्संयोजित करना और साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच के संबंधों को संतुलित करना था। ऐसा इसलिए कि उस समय तक, यह माना जाता था कि भारत अब संयुक्त राज्य अमेरिका के बहुत करीब आ गया है। 

इस प्रकार, इसने अनिवार्य रूप से भारत और दोनों महाशक्तियों (यानी अमेरिका-रूस) के बीच समान दूरी बनाए रखने और भारत व चीन के बीच एक राजनीतिक समझौते के लिए जगह बनाने का आह्वान किया। इस नीति का उद्देश्य चीन के घेरे जाने के डर को कम करना और किसी भी सुरक्षा दुविधा को उत्पन्न होने से रोकना था। 

समझा जाता है कि इस व्यवहारिक नीति के परिणामस्वरूप ही, भारत-अमेरिका संबंधों की गति में उल्लेखनीय गिरावट आई। इसलिए, रणनीतिक स्वायत्तता की नीति प्रमुख भू-राजनीतिक घटनाक्रमों, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की स्थिति में बदलाव और वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलावों के साथ विकसित हुई है। 

जहां पहली पुनरावृत्ति एकध्रुवीयता की पृष्ठभूमि में हुई, जबकि दूसरी पुनरावृत्ति चीन के उदय के दौरान हुई। इस तरह से भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की नीति पारंपरिक रूप से उन प्रमुख भू-राजनीतिक घटनाओं के जवाब में रही है, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गतिशीलता को बदल दिया है।

जहां तक आज की रणनीतिक स्वायत्तता का सवाल है तो यह कहना उचित होगा कि वर्ष 2010 के दशक के उत्तरार्ध में, चीन लगातार भारत का रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा। भारत और चीन के बीच शक्ति का अंतर बढ़ता ही चला गया, जबकि चीन एशियाई व्यवस्था को आकार देने के लिए एकतरफ़ा कदम उठाता रहा। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के ज़रिए, उसने अन्य मध्यम शक्तियों की क़ीमत पर खुद को एशियाई व्यवस्था के केंद्र में रखने की कोशिश की। बताया जाता है कि इन कार्रवाइयों ने ही भारत के सुरक्षा परिवेश पर नकारात्मक प्रभाव डाला।

जैसा कि भारत के तत्कालीन विदेश सचिव एस. जयशंकर (मौजूदा विदेश मंत्री) ने कहा था कि, "बीआरआई एक एकतरफा पहल थी जिसे किसी भी बाहरी सरकार से परामर्श किए बिना शुरू किया गया था। इसमें भारत के लिए मुख्य ख़तरा यह है कि बीआरआई का उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना था जो चीन की प्राथमिकताओं और नियमों को प्रतिबिंबित करे। ऐसी व्यवस्था अनिवार्य रूप से भारत की आर्थिक और राजनीतिक प्रतिस्पर्धात्मकता को कमज़ोर कर देगी और भारत को इस क्षेत्र की पहलों से बाहर कर देगी।"

उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय शक्ति संतुलन के द्विध्रुवीय होने की पृष्ठभूमि में, बीआरआई का क्रियान्वयन पहले भी हो रहा था और अब भी हो रहा है। यह प्रवृत्ति रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्ज़ा करने के तुरंत बाद शुरू हुई। इसके बाद लगे पश्चिमी प्रतिबंधों ने रूस और चीन को एक करीबी साझेदारी के लिए मजबूर कर दिया। वहीं, यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और यूक्रेन के कड़े प्रतिरोध के कारण उसकी घटती शक्ति के बाद यह प्रवृत्ति और भी तेज़ हो गई है।

संभावना है कि आगे चलकर, रूस इस रिश्ते में एक कनिष्ठ भागीदार बनकर उभरेगा तथा चीन पर और अधिक निर्भर हो जाएगा। जबकि भारत के लिए, चीन का विस्तारवाद और आक्रामकता एक प्रमुख चुनौती है। यही वजह है कि बहु-संरेखण की नीति कई उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अमल में लाई जा रही थी, जिनमें से एक चीन के बढ़ते प्रभाव से निपटने का प्रयास करना था। यह रणनीतिक स्वायत्तता की नीति का तीसरा संस्करण है। 

दरअसल, भारत को उम्मीद थी कि वह भारत-प्रशांत क्षेत्र में कई मध्यम शक्तियों के साथ अपने जुड़ाव में विविधता लाएगा, ताकि भारत की भू-राजनीतिक स्थिति के लिए व्यापक समर्थन तैयार हो सके और चीन के प्रभाव का मुकाबला किया जा सके। इस उद्देश्य के अनुरूप ही, भारत ने रूस को भी शामिल किया, ताकि वह चीन के पाले में मजबूती से न फंस जाए। 

इसी दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2019 में रूस यात्रा और उसके बाद के विकसित हुए सहयोग ने रूसी सुदूर पूर्व और यूरेशियन भूभाग पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इससे दोनों देश रूस के सुदूर पूर्व क्षेत्रों में कनेक्टिविटी परियोजनाओं और आर्थिक निवेश पर सहयोग करने पर सहमत हुए।

भारत का दो टूक मानना है कि अगर रूस की घटती शक्ति के मद्देनज़र चीन यूरेशियाई भूभाग पर अपना दबदबा बना लेता है, तो उसका सुरक्षा वातावरण काफ़ी बिगड़ जाएगा। लिहाजा, रूस के साथ भारत का जुड़ाव संभवतः चीनी प्रभाव को कम करने और एक पूर्ण विकसित चीन-रूस गठबंधन को रोकने के उद्देश्य से है। हालाँकि, भारत इसमें कितना सफल होता है, यह देखना अभी बाकी है। 

जबकि केवल पश्चिम, और विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, ही भारत की स्वायत्तता पर चीन के हमले का मुक़ाबला करने में सक्षम है। लिहाजा, इस दिशा में भारत की बढ़ती नीतिगत बदलावों से संकेत मिलता है कि चीन की चुनौती का मुक़ाबला करने में पश्चिम के देश भारत का प्रमुख साझेदार बना रहेगा।

लेकिन पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा शुरू किए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत का जो सामरिक सामर्थ्य उजागर हुआ है और इससे अमेरिका-चीन समेत पश्चिमी देशों के जो तिलिस्म टूटे हैं, उससे अमेरिका बौखला गया है। रूस के प्रति भारत की गहरी निष्ठा देखकर अमेरिका व पश्चिमी देशों को जो मिर्ची लगी है, वह हतप्रभ करने वाला है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान नाटो देशों की जो विवशता सामने आई, उसके लिए सिर्फ भारत-चीन को जिम्मेदार ठहराना कूटनीतिक मूर्खता है। इससे निबटने के लिए अमेरिका द्वारा भारत पर टैरिफ आतंक थोपना और भारतीय अर्थव्यवस्था को डेड इकोनॉमी करार देना अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंफ का मानसिक दिवालियापन नहीं तो क्या है?

इससे पूर्व इजरायल-ईरान युद्ध के बीच भारतीय तटस्थता के सिद्धांतों पर अंगुली उठाना पश्चिमी देशों की अपरिपक्वता का परिचायक है। इन बातों से साफ है कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता/सामरिक स्वायत्तता की नीति इतनी अचूक अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का परिचायक बन चुकी है कि एक दूसरे के मुकाबिल सेना सजा रहे वैश्विक महाशक्तियों को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि ग्लोबल साउथ का अगुवा देश भारत ही जब गुटनिरपेक्ष रहेगा तो उनके युद्धों का भारी-भरकम खर्च किसके मत्थे पर डाला जाएगा, यक्ष प्रश्न है।

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